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९. १६. १२]
हिन्दी अनुवाद
२१५
इन्द्र द्वारा जिनेन्द्र-स्तुति "त्रिजगत्रूपी कमल वनके लिए सूर्यके समान तथा कर्मरूपी खलोंको नष्ट करनेवाले (हे देव ) आपकी जय हो। विगत मल, कमल सदृश मुखवाले तथा विमल गतिवाले (हे देव ), आपकी जय हो। देवों, मनुष्यों एवं विद्याधरोंके शिरोमणि (हे देव ) आपकी जय हो । अभयदानसे परिपूर्ण हृदयवाले तथा विमलतर गुणोंके निलय (हे देव) आपकी जय हो। शशि-किरणोंके समान सौम्य वाणी वाले (हे देव) आपकी जय हो। अपनी जयसे भुवनको भर देने वाले (हे ५ देव ) आपकी जय हो। देव विहित-संगीतसे ध्वनित गगनतलवाले (हे देव ) आपकी जय हो। हे दयालु, पापोंको नष्ट करनेवाले, जन्म, जरा एवं मरणको नष्ट करनेवाले (हे देव ) आपकी जय हो । इन्द्रियों एवं मनपर विजय प्राप्त करनेवाले, इन्द्रिय-दमनमें रतिवाले तथा काम-भोगोंका विस्मरण करनेवाले (हे देव ) आपकी जय हो। विषयरूपी विषम-विषधरके महाविवरको निविष करनेवाले (हे देव ) आपकी जय हो । अपने अभिषेकके जलके धवल प्रवाह द्वारा गिरि- , विवरको धो डालने वाले ( हे देव ) आपकी जय हो। अनुपम समवशरण की शुभ-रचनाकी श्रीसे सुशोभित ( हे देव ) आपकी जय हो। निखिल नयोंकी विधिमें कुशल एवं परहितकारी ( हे देव ) आपकी जय हो। तप्त निर्मल स्वर्णके समान सुन्दर शरीरकी द्युति-प्रभाकी श्रीसे सम्पन्न (हे देव) आपको जय हो। दुर्लभतर परमपदके प्रचुर सुखोंके जनक (हे देव) आपकी जय हो। दुस्सह मतरूपी समुद्रके परिमथनसे उत्पन्न ( झूठे-) सुखोंको हरनेवाले (हे देव ) आपकी जय हो । अनुपम १५ श्रीसे समृद्ध तथा देव-पर्वतको हर्षित करनेवाले ( हे देव ) आपकी जय हो।
घत्ता-पुनः उस इन्द्रने देवोंके मनका हरण करनेवाले तथा अन्धकारके नाशक आभूषणों द्वारा वीरकी पूजा की और अप्सराओंके साथ मात्सय रहित होकर सुरनाथ-इन्द्रने स्वयं ही नृत्य किया ॥१८५।।
अभिषेकके बाद इन्द्रने उस पुत्रका 'वीर' नामकरण कर उसे अपने माता-पिताको
सौंप दिया। पिता सिद्धार्थने दसवें दिन उसका नाम वर्धमान रखा ( स्तुति-पूजाके बाद ) पुनः वे सुरवर ( सुमेरु पर्वतसे ) वीर-जिनको हाथोंहाथ लेकर वायुमार्गसे चले और इन्द्रपुरीके समान उस कुण्डपुरमें ध्वजा-पताकाओंसे सुसज्जित भवनमें ले आये
और देहरूपी वृक्षके क्षयकारी पुत्रापहरणके दुखसे दुखी माता-पिताको अर्पित किया ( और निवेदन किया )-आपके महान् उदयवाले कमल सदश मुखवाले पूत्रकी प्रतिकृति बनाकर उसे रखकर तथा इस पुत्रको लेकर सुमेरु पर्वतपर ( ले गये थे फिर ) क्षीरोदधिके निर्मल-जलसे उसका अभिषेक किया है । तपाये हुए सोनेकी कान्तिके समान देहवाला आपका यह अभिनव ( नवजात ) शिश ५ अरहन्त-पदके योग्य होगा।" इस प्रकार कहकर श्रेष्ठ पुष्पाभरणों तथा विलेपनोंसे जिनेन्द्रके मातापिताकी पूजा कर कुलरूपी कमल-पुष्पोंके लिए सूर्यके समान उन जिनाधिपका 'वीर' यह नाम बताकर आनन्दसे परिपूर्ण मनवाले सुरवर मणि-किरणोंसे भासमान अपने विमानमें बैठकर वापस लौट गये। जिनेन्द्र के जन्मकालसे ही प्रतिदिन अपने कुल-श्रीको चन्द्रकलाके समान शोभा समृद्ध एवं वृद्धिंगत देखकर मस्तक मुकुटोंमें जटित, रत्नकिरणोंसे भास्वर सुरेन्द्रोंके साथ उस राजा सिद्धार्थने १० दसवें दिन अपने उस पुत्रका नाम 'वर्धमान' रखा।
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