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वड्डमाणचरिउ किंकर होइन अप्पाइत्तउ-(४।२४।१३)।
(सेवकोंका अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता।) कि कि ण करइ पवहंतु णेहु ( ५।१५।६)।
(स्नेह पाकर जीव क्या-क्या नहीं कर डालता ?) फल-फुल्ल-णमिउँ कि कालियाग परिय िण चूउ अलिमालियाग ( ८.१७।२ )।
(फल-फूलोंसे नम्रीभूत आम्रकलियोंका क्या भ्रमर-समूह वरण नहीं करता ?) उवयायल-कडिणि परिट्टि ओवि रवि परियरियइ तेऍण तोवि ( ९।८।८ )।
(उदयाचलकी कटनी-तलहटीमें स्थित रहने पर भी रवि क्या तेजसे घिरा हुआ
नहीं रहता ?) सर सलिलंतरे लीलही अमेउ कि मउलिय-कमलहो होइ खेउ । ( ९।८।११)
(सरोवरमें जलके भीतर अमेय लीलाएँ करनेवाले मुकुलित कमलको क्या खेद
होता है ?) हउँ पुणु एयहो आण-करण-मणु जं भावइ तं भणउ पिसुण-यणु। पुव्व कम्मु सप्पुरिस ण लंघहिँ
कज्ज उत्तरुत्तर आसंघहिं ।। (४।३।६-७) (खलजन तो जो मनमें आता है सो ही कहा करते हैं, किन्तु सज्जन पुरुष पूर्व-परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। कार्य आ पड़नेपर उनसे तो उत्तरोत्तर घनिष्ठता ही बढ़ती जाती है।)
कढिणहो कोमलु कहिउ सुहावहु णयवंतहि णिय-मणि परिभावहु । (४।१३।९)
(नीतिज्ञों द्वारा कर्कशताकी अपेक्षा कोमलताको ही सुखावह कहा गया है।) पिय वयणहा वसियरणु ण भल्लउ अस्थि अवरु माणुसइँ रसल्लउ । (४।१३।११)
(मनुष्योंके लिए प्रिय वाणी छोड़कर अन्य कोई दूसरा उत्तम रसाई-वशीकरण नहीं कहा जा सकता।)
जुत्तउ महुरु लवंतउ दुल्लहु परपुट्ठो वि हवइ जणवल्लहु । ( ४।१३।१२)
(दुर्लभ मधुर वाणी बोलकर परपोषित होनेपर भी कोयल जन-मनोंको प्रिय
होती है।) सामणु अण्णु ण णोक्खउ । ( ४।१३।१४ )
(सामनीतिसे बढ़कर अन्य कोई नीति उत्तम नहीं हो सकती।) मणु न जाइ कुवियहों वि महंतहो विक्किरियह कयावि कुलवंतहो । ( ४।१४।११)
(कुलीन महापुरुष यदि क्रोधित भी हो जाये, तो भी उनका मन कभी भी विकृति
को प्राप्त नहीं होता।) जलणिहि-सलिलु ण परताविज्जइ तिण हउ । (४।१४।१२)
(समुद्रका जल क्या फूसकी अग्निसे उष्ण किया जा सकता है ?)
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