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वडमाणचरिउ
२४. कुछ उद्वेगजनक स्थल कविकी सरस एवं मार्मिक कल्पनाएँ, सूक्ष्मान्वीक्षण-वृत्ति, चित्रोपमता तथा बहुज्ञता उसकी कृतिको लोकप्रिय एवं उपादेय बनाने में सक्षम होती है। किन्तु रचनामें भाव-सौन्दर्य होनेपर भी यदि तथ्य-निरूपणमें असन्तुलन तथा घटना-क्रमोंके चित्रणमें क्षिप्रता हो तो काव्य-चमत्कारमें पूर्ण निखार नहीं आ पाता। विबुध श्रीधरने 'वड्ढमाणचरिउ' को यद्यपि सर्वगुण-सम्पन्न बनानेका पूर्ण प्रयास किया है, किन्तु अपने क्षिप्र-स्वभावके कारण वे कहीं-कहीं घटना-क्रमोंको सन्तुलित बनाने में जितने समय एवं शक्तिकी अपेक्षा थी, उसका उन्होंने बहुत ही कम अंश व्यय किया है । अतः हमें यह मानने में संकोच नहीं है कि श्रीधरमें प्रतिभाका अपूर्व भण्डार रहनेपर भी अपने क्षिप्र-स्वभावके कारण वे कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार रम नहीं सके हैं। उदाहरणार्थ
(१) त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीवके भयानक-युद्धका वर्णन तो कविने लगभग २५ कडवकोंमें किया, किन्तु हयग्रीवके वध ( उद्देश्य-प्राप्ति ) के बाद त्रिपृष्ठकी विजयके उपलक्ष्यमें सर्वत्र हर्षोन्मादका विस्तृत वर्णन अवश्य होना चाहिए था, जबकि कविने उसका सामान्य उल्लेख मात्र भी नहीं किया ( ५।२३ ) ।
(२) स्वयंप्रभाके स्वयंवरके वर्णन-प्रसंगमें विविध देशोंके नरेशोंकी उपस्थिति, उनके हाव-भाव, उनके मानसिक उद्वेग, उनकी साज-सज्जा एवं वेशभूषा आदिके खुलकर वर्णन करनेका कविके लिए पर्याप्त अवसर था, किन्तु उसने उसमें अपनी शक्ति न लगाकर स्वयंवर-मण्डपकी रचना तथा विवाह-वर्णन गिनीचुनी पंक्तियोंमें करके ही सारा प्रकरण समाप्त कर दिया ( ६।९ )।
(३) त्रिपृष्ठको मृत्युके बाद कवि स्वजनों एवं परिजनोंके शोक-वर्णनके साथ-साथ सारी सृष्टिके शोकाकुल रहनेकी विविध कल्पनाएँ कर करुण रसकी सर्जना कर सकता था, किन्तु कविने विजयसे मात्र दो पंक्तियोंमें रुदन कराकर ही विश्राम ले लिया ( ६।१०।१-२ )।
इसी प्रकार द्यतिप्रभा-अमिततेज तथा सुतारा-श्रीविजयके विवाहके साथ त्रिपृष्ठकी मृत्युरूप शुभ एवं अशुभ घटनाओंका क्रमिक वर्णन कविने एक ही कडवकमें एक ही साथ कर दिया, जो घटना-संगठनकी दृष्टिसे अनुचित एवं सदोष है ( ६।९)।
____ इसी प्रकार अष्ट-द्रव्योंमें-से मात्र सात-द्रव्योंके उल्लेख (७।१३।३), हरिषेणके जन्मके बाद एकाएक ही उसकी युवावस्थाका वर्णन (७।११), एक ही कडवकमें द्वीप, देश, नगर, राजा, रानी, स्वप्नावली एवं पुत्रोत्पत्तिके वर्णन (८।१) आदि प्रसंगोंमें कविने अपने क्षिप्र-स्वभावका परिचय दिया है।
इनके अतिरिक्त ६।५,६।९,८।११,९।१९ एवं ९।२२ के वर्णन-प्रसंगोंमें भी कविका वही दोष दृष्टिगोचर होता है। कविका यह स्वभाव उसकी रचना पर काव्य-दोषको एक कृष्ण-छाया डालनेका प्रयास करतासा प्रतीत होता है।
इसके अतिरिक्त कविने तर प्रत्ययान्त शब्दोंका अनेक स्थलोंपर प्रयोग किया है। जैसे-वरयर (१।१।९), चंचलयरु (१।१३।१०), चलयरु (१।१४।३), पंजलयर (२।८।८), णिम्मलयर (८।२।४,१०।१७। ११), पविमलयर (८।१४।१,८।१४।६,८।१६।६,८।१७११), दुल्लहयर (९।८।१०,९।१५।४), विमलयर (९। १५।४), सुंदरयर (१।६।२,१०।१८।७), दूसहयर (१।९।७), गुरुयर (१।१७।१६), थिरयर (२।२।६) एवं असुहयर (१०।२५) आदि । यद्यपि कविने अधिकांश स्थलोंपर अनावश्यक होनेपर भी मात्रा-पूर्त्यर्थ ही उनका प्रयोग किया है, किन्तु उसमें अस्वाभाविकता भी अधिक आ गयी है, जो काव्यका एक दोष है ।
उक्त उपलब्धियों एवं अनुपलब्धियों अथवा गुण-दोषोंके आलोकमें कोई भी निष्पक्ष आलोचक विबुध श्रीधरका सहज ही मूल्यांकन कर सकता है। कविने विविध विषयक ६ स्वतन्त्र एवं विशाल ग्रन्थ लिखकर अपभ्रंश-साहित्यको गौरवान्वित किया है। निस्सन्देह ही वे भाषा एवं साहित्यकी दृष्टिसे महाकवियोंकी उच्च श्रेणीमें अपना प्रमुख स्थान रखते हैं ।
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