________________
३. ११.१२]
हिन्दी अनुवाद
५७
धत्ता - इस प्रकार वचन कहकर गुणरत्नोंकी खानि स्वरूप वह प्रधान मन्त्री जब चुप हो १५ गया, तब नृप विशाखभूतिने मन्त्री वर्गको विसर्जित कर दिया और अन्तमें उस कार्यको ( स्वयं ही ) करने के निमित्त अपना मन एकाग्र किया ॥ ४८ ॥
१०
विशाखभूतिने छलपूर्वक युवराज विश्वनन्दिको कामरूप नामक शत्रुसे युद्ध करने हेतु रणक्षेत्र में भेज दिया
राजा विशाखभूति स्वयं ही अपने मनसे कुछ विचार करके तत्काल ही सहोदर भाई के पुत्र - विश्वनन्दिको बुलाकर कहा- - " क्या तुम नहीं जानते कि महान् शक्तिशाली शत्रु हमारे प्रतिकूल हो गया है । वह 'कामरूप' इस नामसे प्रसिद्ध है । वह ऐसा प्रतीत होता है मानो यमराजका दूत ही अवतरा हो । मैं उसे नष्ट करनेके लिए जानेवाला हूँ । अतः हे गुण नियुक्त पुत्र, मेरी अनुपस्थिति में तुम सावधानीसे रहना ।" चाचा विशाखभूतिके ( छल-प्रपंचवाले ) वचन सुनकर युवराज विश्वनन्दिने नतमस्तक होकर मधुर वाणी में कहा- “मेरे होते हुए आपको कौन-सा प्रयास करना है ? हे प्रभु, आप मुझे ( वहाँ ) भेजिए । मैं ( ही ) उसे मारूँगा । समस्त वैरी-जनों को समाप्त कर देनेवाला मेरा जो प्रताप था, वह किसी प्रतिपक्षी के बिना कई दिनोंसे मेरी भुजाओंमें ही विलीन होता जा रहा है । हे नरनाथ, आपने न तो वह जाना और न ( उसपर कभी ) विचार ही किया है । ( अतः अब अवसर मिला है तो) पराये बलके वशीभूत वैरीगणको महान् १० रणमें नष्ट करने हेतु आप मुझे ही प्रकट करें ( अर्थात् मुझे रणभूमिमें जाकर अपना प्रताप दिखाने दें ) ।” इस प्रकार युवराजका दर्पोक्ति पूर्ण कथन सुनकर तथा उसे अतिसुन्दर मानकर
धत्ता—उस नरनाथ विशाखभूतिने ( विश्वनन्दिको ) सजा-धजाकर वहाँ ( कामरूपसे युद्ध करने हेतु ) भेज दिया । उस युवराजने भी नन्दन - वनकी सुरक्षा व्यवस्था कर ( तथा अपने ) सेवकों को सावधान कर वहाँसे प्रयाण किया ॥ ४९ ॥
१५
११
५
विशाखनन्दि द्वारा नन्दन-वनपर अधिकार
मार्ग में वाजि एवं पदाति सेनाओंके साथ चलते-चलते कुछ ही दिनों में स्वदेश छोड़कर अनेक मेरी-रवोंसे जगत्को भरता हुआ, अपनी लक्ष्मीसे शक्रकी लक्ष्मीको भी पराजित करता हुआ, करोड़ों महान् शूर, सामन्तोंसे युक्त वह विश्वनन्दि शीघ्र ही शत्रु देशके पार्श्व भागमें जा पहुँचा । इसी बीच ( एक दिन ) जब वह ( अपनी ) सभाके मध्यमें बैठा था, तभी उसने दूर से ही एक दण्डधारी प्रतिहारीको वहाँ प्रवेश करते हुए देखा। उसके घावोंपर कपड़ेकी पट्टियाँ बँधी हुई दिखायी दे रही थीं ( x xxx ) वह नाथ ( विश्वनन्दि ) को सिर झुकाकर पुनः दृष्टि - विशेष द्वारा प्रदत्त स्थानपर बैठ गया । यद्यपि कुछ देर तक बैठकर अपने घावोंसे परिपूर्ण शरीर द्वारा वह सब कुछ निवेदन कर ही चुका था, फिर भी एक क्षणके लिए ( विशाखनन्दिके प्रति ) द्वेष-वश खड़े होकर व्याकुलता पूर्वक माथा झुकाकर, पुनः रोषसे भरकर उस ( प्रतिहारी ) ने अपने नाथ–विश्वनन्दिके चित्तको क्रोधित कर देनेवाला अपना समस्त वृत्तान्त ( इस प्रकार ) कहा - "चाचा विशाखभूतिकी आज्ञासे हमारी भर्त्सना की गयी, रुष्ट एवं क्रूर दृष्टि द्वारा हमें भगा दिया गया तथा निरन्तर आपके योग्य उस नन्दन - वनको दुराशयी उस दुष्ट विशाखनन्दिने बलात् हमसे छीन लिया । दुष्ट विशाखनन्दि ( अभी ) वहाँ स्थित है, तथा धनसे आपूरित अनेक बन्दी वहाँ दौड़ रहे हैं ।
१०
८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
५
www.jainelibrary.org