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हिन्दी अनुवाद
१४ राजा नन्दिवर्धनकी अनित्यानुप्रेक्षा
मेघकूटको सहसा हो विलीन हुआ देखकर राजा नन्दिवर्धनने उसी समय अपने मनमें अनित्यानुप्रेक्षाका ( इस प्रकार ) ध्यान किया - ' वपु, जीवन, सम्पदा, रूप और आयु इन सभीका उसी प्रकार नाश हो जाता है, जिस प्रकार सन्ध्याकी लालिमा । समस्त वस्तु-सन्तति को नाशवान् समझो। वे सब तो आधे क्षणमात्र तक ही रमणीय प्रतीत होती हैं।' इस प्रकार अपनी प्रियतमा वीरवतीसे अलंकृत गात्रवाला वह विवेकी राजा अपनी राज्यलक्ष्मीसे विरक्त हो गया । ५ वह मनमें विचारने लगा कि - 'विषके समान सांसारिक सुखोंमें कौन रति बाँधेगा ? यह जीव उपयोग और भोगकी तृष्णा में लीन होकर मोह पूर्वक गृह एवं गृहिणीमें निरन्तर आसक्त रहता है और इस प्रकार दु:सह एवं दुरन्त दुःखोंवाले संसार रूपी लौह-पिंजरे में यह जीव निरन्तर उसी प्रकार डाल दिया जाता है, जिस प्रकार सुईके छिद्रमें तागा ।' उसने पुनः अपने मनमें विचार किया कि- 'जन्म-मरणरूपी समुद्र में निरन्तर डूबते-उतराते हुए प्राणियों के लिए मात्र यह नर-जन्म ही १० रम्य ( आलम्बन ) है | इस नर-भव - कोटिमें भी उत्तम कुल, बल, देश आदि का मिलना कठिन है और (यदि वे मिल भी जायें तो ) अन्तमें विषयवासनाओं से कभी भी न जीती जा सकनेवाली सदैव हितकारी रहनेवाली बुद्धिकी प्राप्ति दुर्लभ है ।
१.१५.१४ ]
घत्ता - 'भव-भवमें सन्तप्त शरीरवाला यह जीव अनादि कालसे मिथ्यात्व द्वारा तिरस्कृत होता आया है, फिर भी पापोंका विध्वंस करनेवाला सम्यग्दर्शन उसे नहीं रुचता' ॥ १४ ॥
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राजा नन्दिवर्धनका जिनदीक्षा लेनेका निश्चय तथा पुत्रको उपदेश
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'जिस कारण यह जीव मिथ्यात्वमें अविरलरूपसे आसक्त रहता है उसी कारण यह भवरूपी सागरमें भटकता है । सभी निकट भव्य (जीव ) विषय-वासनासे विरक्त होकर तथा अन्तर्बाह्य परिग्रहों को छोड़कर एवं रत्नत्रयको आदरपूर्वक धारण कर मोक्षप्राप्तिके हेतु जिन-दीक्षा धारण करते हैं । उक्त रत्नत्रय एवं जिन - दीक्षासे ही आत्म-कल्याण है, यह मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ, तो भी तृष्णासे ग्रस्त होकर मैंने राज्यभोग किया। इस प्रकार मेरी वह बुद्धि महान् हिंसाकी मूल ५ कारण थी । मनोगत उस हिंसारूपी द्रुमलताको अब उसी प्रकार समूल नष्ट कर डालूँगा, जिस प्रकार हाथी लताओंको समूल उखाड़कर फेंक देता है । अब इससे और अधिक कहनेसे क्या लाभ ?' इस प्रकार अपने मनमें मानकर तथा दीक्षाकी अभिलाषा कर उसने सीमन्तिनियोंके साथ विलासको दूरसे ही छोड़कर, भवनके शिखराग्र ( अट्टालिका ) से उतरकर तथा मणिमय सिंहासनपर बैठकर कुछ क्षणोंमें ही कुल परम्पराको आनन्द प्रदान करनेवाले राजा नन्दनको १० अपने सम्मुख बुलाया और कहा - 'समस्त राजाओंमें तू ही श्रेष्ठ है, तू ही लक्ष्मीका मण्डन है । तूने शत्रुओं को नष्ट कर दिया है । क्या नवोदित सूर्यके बिना दिनश्री शोभाको प्राप्त हो सकती है ? तुम प्रजाजनों के प्रति अनुरागका विस्तार करो तथा शत्रुजनोंके प्रति विश्वासभावको छोड़ो।'
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घत्ता - 'तुम अपनी शक्तिशाली सेनासे शत्रुसेनापर विजय प्राप्त कर रहे हो । समृद्धिको भी उन्नत बना रहे हो । अतः हे कमलमुख, अब मैं तुम्हें क्या उपदेश दूँ' ? ।। १५ ।।
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