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सन्धि
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राजा नन्दन पितृ-वियोगमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। घत्ता-अपने पिताके घने वृक्षवाले तपोवनमें चले जानेपर उनके वियोग-शोकसे आहत राजा नन्दन इस प्रकार खीजने और झीजने ( झूरने ) लगा, जिस प्रकार विन्ध्याचलमें वियोगी महागज ॥६॥
वह राजा नन्दन अपने मनमें संसारकी समस्त गतिको जानता था तथा उसे हथेलीपर रखे हुए रत्नकी तरह मानता था। वह मतिवान् था, तो भी उसे पिताके वियोगका इतना शोक ५ बढ़ गया कि वह उसमें तिरोहित होकर किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया। उस अवसरपर बुधजन, सामन्त, मन्त्री, पुरोहित, एवं सन्मित्रोंने मन्त्रणा की कि इस वणिकको पिताके वियोगका दःख है. अतः इसे ( हम लोग ) समझायें तथा श्रुतार्थके वचनोंसे इसे भावित ( सम्बोधित ) करें। (ठीक
ही कहा गया है कि ) महान् पुरुषोंके मनका अनुरंजन कौन नहीं करता? अतः वे उसके सम्मुख • आकर बोले- "हे स्वामिन्, हमारे ऊपर दया करें, हे प्रभु, विषादको शीघ्र ही छोड़ें तथा अब १०
अपने पिताके प्रियपदको सम्हालें । जो सुपुरुष एवं गुणसागर हैं, वे कभी भी शोकाकुल नहीं होते। क्योंकि शोकके कारण व्यक्ति कुपुरुष एवं कायर बन जाता है। अत्यन्त भक्तिपूर्वक सुदेव एवं सुगुरुको प्रणाम कीजिए और अपने पिताके द्वारा प्रदत्त समस्त कार्योंको कीजिए। यदि आप शोकसागरमें डूबे रहेंगे तो ऐसे कौन से सचेतन व्यक्ति हैं, जो सुखी मन होकर रह सकेंगे।"
घत्ता-इस प्रकार अपने स्वामीको आश्वस्त कर एवं विनयपूर्वक समझाकर सभी जन १५ गगनचुम्बी शिखरोंवाले सभास्थलसे नन्दनके तपोवन जाने सम्बन्धी अपने भयकी भावनाको दूरकर तथा राजा ( नन्दन ) से आज्ञा प्राप्तकर अपने-अपने घर चले गये ॥१८||
राजा नन्दनकी 'नृपश्री' का विस्तार 'विषाद करने से दुर्गति प्राप्त होती है' यह जानकर पितृ-वियोग सम्बन्धी उत्पन्न शोकको छोड़कर उस राजा नन्दनने, जिस प्रकार वह जानता था उसी प्रकार अपने मनमें इच्छित समस्त क्रियाओंको किया। कुछ ही दिनोंमें बिना किसी बाधाके, मात्र अपने बुद्धिबलसे ही उसने लालनपालन कर पृथिवी रूपी वधूको शीघ्र ही अपने गुणोंमें अनुरक्त कर लिया तथा दुर्जेय शत्रुजनोंको भयभीत कर देने मात्रसे ही उन्हें नम्रीभूत बना लिया। जो लक्ष्मी चंचला थी, वह उस नरनाथका ५ सहारा पाकर निश्चल हो गयी, यह कोई आश्चर्यका विषय न था। तथा उसकी पूर्णमासीके चन्द्रमाको भी निर्जित कर देनेवाली स्थिरतर कीर्ति, पृथिवीतलपर निरन्तर भ्रमण करने लगी। अत्यन्त सुन्दर उस राजाने गिरि-कन्दराओं तकको समृद्धियों से भर दिया। मात्सर्य-विहीन
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