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वड्डमाणचरिउ
का घोर आक्रमण है। किन्तु इसका खोखलापन उस समय स्पष्ट हो जाता है, जब दोनोंका आमना-सामना हो जाता है और विशाखनन्दि, विश्वनन्दिसे जान बचानेके लिए कैथके वृक्षपर चढ़ जाता है। किन्तु फिर भी जब उसे प्राण बचनेकी आशा नहीं रही तब वह कापुरुष, विश्वनन्दिके चरणोंमें गिरकर प्राणोंकी भिक्षा मांगता है (३।१५।९-१२)।
दूसरा घोर संग्राम सामाजिक रीति-रिवाजके उल्लंघनका परिणाम है । विद्याधर राजा ज्वलनजटी अपनी पुत्री स्वयंप्रभाका विवाह ( ३।२९-३१; ४।१-४) पोदनपुरके भूमिगोचरी राजा प्रजापतिके सुपुत्र युवराज त्रिपृष्ठके वीर्य-पराक्रम (३-२४-२८) से प्रभावित होकर उसके साथ कर देता है। विद्याधरोंके अर्धचक्रवर्ती राजा हयग्रीव ने इसे अपना घोर अपमाम समझा। वह यमराजके समान भयानक तथा प्रलयकालीन अग्निके समान विनाशकारी गर्जना करते हुए चिल्लाया-"अरे विद्याधरो, इस ज्वलनजटीने हमारे समाजके विरुद्ध जो कार्य किया है, क्या तुम लोगोंने इसे प्रकटरूपमें नहीं सुना? इस अधम विद्याधरने हम सभी विद्याघरोंको तृणके समान मानकर हमें तिरस्कृत किया है तथा अपना कन्यारत्न एक दानव स्वरूपवाले भूमिगोचरी ( मनुष्य ) के लिए दे डाला है।" हयग्रीवकी इस ललकारपर उसकी सेना युद्धके लिए तैयार हो जाती है। उधर प्रजापतिके गुप्तचरोंने जब प्रजापतिको सूचना दी तो वह भी अपनी तैयारी करता है। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध होता है। अन्तमें चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ (प्रजापति का पुत्र) अर्धचक्रवर्ती हयग्रीवका वध कर डालता है ( ५।२३)।
कविने इस युद्ध का वर्णन प्रारम्भसे अन्त तक बड़ा ही वैज्ञानिक-रीतिसे किया है। दोनों पक्ष युद्धके पूर्व अपने मन्त्रियोंसे सलाह लेते हैं। हयग्रीवका मन्त्री हयग्रीवको सलाह देता है कि अकारण ही किया गया क्रोध विनाशका कारण होता है। वह साम, दाम एवं दण्ड नीतियोंका संक्षिप्त विश्लेषण कर अन्तमें यही निष्कर्ष निकालता है कि त्रिपृष्ठके साथ युद्ध करना सर्वथा अनुपयुक्त है ( ४।९)। किन्तु हयग्रीवने मन्त्रीकी सलाहकी सर्वथा उपेक्षा की तथा हठात् युद्ध छेड़ ही दिया।
___ इधर राजा प्रजापतिने भी तत्काल मन्त्रि-परिषद्को बुलाकर हयग्रीवके युद्धोन्मादकी सूचना दी। मन्त्रियोंमें-से एक सुश्रुतने सामनीति (४।१३-१५) के गुण एवं प्रभावोंकी चर्चा कर उसके प्रयोगपर बल. दिया। किन्तु त्रिपृष्ठके बड़े भाई विजय ( हलधर ) ने दुष्ट हयग्रीवके युद्धको शरारत भरा तथा अन्यायपूर्ण समझकर उस परिस्थितिमें साम नीतिको सर्वथा अनुपयोगी समझा तथा कहा कि स्वभावसे ही अहितकारी तथा शत्रुकर्मों में लगा हुआ व्यक्ति प्रेम अथवा सामनीतिके प्रदर्शनसे शान्त नहीं हो सकता (४।१७।१) और उसने ईंटका जवाब पत्थरसे देनेवाली कहावतको चरितार्थ करनेपर बल दिया (४।१७)। अन्ततः विजयका तर्क मान लिया गया। उसके बाद गुणसागर नामक मन्त्रीके कथनपर युद्ध-क्षेत्रमें पहुँचनेके पूर्व युद्ध के लिए आवश्यक विद्याओंकी सिद्धि, साधन-सामग्री तथा पूर्वाभ्यासपर बल देने सम्बन्धी उसकी सलाहको मान लिया गया । ( ४।१८-१९) और उसके बाद युद्ध क्षेत्रको ओर कूच करजेकी तैयारी की गयी (४।२०)।
सबसे आगे ध्वजा-पताकाओंको फहराता हुआ मेघ-घटाओंके समान (४।२१) हाथियों का दल चला, फिर वेगमें लता-प्रतानोंमें गुल्म-लताओंको लाँघ जानेवाले (४।२१) चपल घोड़ोंका दल। उसके पीछे आयुधोंसे युक्त रथोंका दल तथा इनके साथ चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ तथा उसके आगे-पीछे श्वेत छत्रोंको लगाकर तथा दायें हाथोंमें तलवार लेकर अन्य राजे-महाराजे (४।२०)। त्रिपृष्ठ की इस सेनाके चलनेसे इतनी धूलि उड़ी कि उसीकी ओरसे लड़ने के लिए नभ-मार्गसे चलती हुई विद्याधर-सेना धूलिसे भर गयी (४।२१)। पृथ्वी-मार्ग एवं आकाश-मार्गसे चलती हुई दोनों ( मनुष्य एवं विद्याधर ) सेनाएँ एक-दूसरेको देखती हुई प्रसन्न-मुख होकर आगे बढ़ रही थीं। त्रिपृष्ठ एवं विजयके आगे-आगे राजा प्रजापति चल रहे थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो नय एवं विक्रमके आगे प्रशम ही चल रहा हो (४।२१)।
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