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वड्डमाणचरिउ दिया और १२वीं शताब्दीके आचार्य देवेन्द्रसूरिके समय तक वे जटाजूट-धारी, भभूत-धारी तथा पिच्छिकाधारी बनकर छल-कपटपूर्ण आचरण करते हुए ग्रामों, गोकुलों व नगरों में वर्षावास करने लगे थे।
२१. सिद्धान्त और आचार 'वड्डमाणचरिउ' मूलतः एक धर्म-ग्रन्थ है, अतः इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रका सभी दृष्टियोंसे सुन्दर एवं विस्तृत विवेचन किया गया है । कविने इसके भेद-प्रभेदोंके रूपमें उनका प्रसंगानुकूल वर्णन किया है। धर्मोपदेशका प्रारम्भ वह आत्मवादसे करता है। राजकुमार नन्दन जब वन-विहारके लिए निकलता है, तब वहाँ उसकी भेंट ऐल गोत्रीय मुनिराज श्रुतसागरसे होती है। नन्दन भवसागरसे भयभीत रहता है, अतः वह सर्वप्रथम यही प्रश्न करता है कि संसाररूपी सर्पके विषको दूर करने में मन्त्रके समान है सन्त, एलापत्य गोत्रके हे आदि-परमेश्वर, मुझे यह बतलाइए कि जीव निर्वाणस्थलमें किस प्रकार जाता है ?
८-११)। मुनिराज राजकुमारके प्रश्नको सुनकर सीधी और सरल भाषामें समझाते हुए कहते हैं"जब यह जीव 'यह मेरा है', 'यह मेरा है' इस प्रकार कहता है, तब वह जन्म, जरा और मृत्युसे युक्त संसारको प्राप्त करता है, तथा जब उस ममकारसे विमुक्त होकर आत्मभावको प्राप्त होता है, तब वह मोक्षको प्राप्त कर लेता है" (१।१०।२)।
कवि भवसागरसे मुक्ति पामेका मूल 'अनित्यानुप्रेक्षा'को मानता है। अतः राजा नन्दिवर्धन जब भवभोगोंको भोगकर एकान्तमें बैठता है, तब उसे संसारके प्रति अनित्यताका भान होता है। वह सोचने लगता है कि शरीर, सम्पदा, रूप और आयु इन सभीका उसी प्रकार नाश हो जाता है, जिस प्रकार सन्ध्याकी लालिमा (१।१४।२-३) और इस प्रकार विचार करता हुआ वह पिहिताश्रव मुनिके पास दीक्षा ले लेता है (१।१७।१४)।
कविने जीवको कर्मोका कर्ता और भोक्ता मानकर रागको संसारका कारण माना है। जबतक राग समाप्त नहीं होता, तबतक सम्यक्त्वका उदय सम्भव नहीं (२।९)।
मुक्ति प्राप्त करनेके लिए क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग (६।१६) अत्यन्त आवश्यक है । लक्ष्यको प्राप्तिके लिए अतबाह्य परिग्रहोंका त्याग (६।१५), तीन शल्य, तीन मद एवं दोषोंका सर्वथा त्याग अत्यन्त आवश्यक बतलाया गया है (६।१५) ।
कविने दो प्रकारके धर्मोकी चर्चा की है। सागार-धर्म एवं अनगार-धर्म । इन दोनों धर्मोंका मूल आधार भी कविने सम्यक्त्वको ही माना है और बतलाया है कि-"सम्यग्दर्शन संसार-समद्रसे तरनेके । नौकाके समान है" ( ७।६ )।
कर्म आठ प्रकारके होते हैं । कविने उनका मूल कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योगको माना है। मनकी वृत्तिको एकाग्र एवं शान्त बनानेके लिए इनको वृत्तियोंसे दूर रहना अत्यन्त आवश्यक है (७६)।
कविने बारह प्रकारके व्रतोंका सुन्दर निरूपण किया है। उसने मनिराज नन्दनके द्वादशविध तपोंकी चर्चा करते हुए बाह्य-तपोंकी चर्चा इस प्रकार की है कि-"उस मुनिराजने निर्दोष महामतिरूपी भुजाओंके बलसे श्रुतरूपी रत्नाकरको शीघ्र ही पार कर लिया तथा जिस समय तीव्र तपरूपी तपनका प्रारम्भ किया, उस समय मनसे, रागद्वेष रूपी दोनों दोषोंको निकाल बाहर कर अनशन-विधान द्वारा अध्ययन एवं ध्यानको सुखपूर्वक संसाधित किया। निद्राको समाप्त करने हेतु विधिपूर्वक सचित्त वर्जित परिमित-आहार ग्रहण
१. श्रमण भगवान महावीर, पृ. २८१ । २. अगडदत्तकहा, पद्य २०८-२०६ ।
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