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प्रस्तावना
५३
सिहि-संतत्तउ जाइ मिउत्तणु । (४।१६।७)
(अग्निसे तपाये जाने पर ही लोहा मृदुताको प्राप्त होता है ।) अणु अंतरुसहो उवसमु पुरिसहो । किर एकेणं वप्पणएणं ॥ (४।१६।१-२)
(जो पुरुष बिना किसी निमित्तके हो हृदयमें रुष्ट हो जाता है उसे किस विशेष
नीति से शान्त करना चाहिए ?), अहिउ णिसम्गउ वइरे लग्गउ । ण समइ सामें पयणिय कामें । (४।१७।१-२)
(स्वभावसे ही अहितकारी तथा शत्रुकर्मों में लगा हआ व्यक्ति प्रेम अथवा सामनीतिके प्रदर्शनसे शान्त नहीं हो सकता।)
कि तरुणो वि-ण-सो उवसामइ सेयमग लग्गइणिरु जसु-मइ। (७।१२।८)
(जिसकी बुद्धि श्रेयोमार्गमें निरन्तर लगी रहती है, क्या वह तरुण होनेपर भी उपशान्त नहीं हो जाता ?)
१०. उत्सव एवं क्रीड़ाएँ उत्सव एवं क्रीड़ाएं लोकरुचिके प्रमुख अंग हैं। 'वड्डमाणचरिउ'में इनके प्रसंग बहुत कम एवं संक्षिप्त रूपमें मिलते हैं। उनका मूल कारण यही है कि कविने पुनर्जन्म, शुभाशुभकर्मफल, भौतिक-जगत्के के विविध दुख तथा सैद्धान्तिक एवं आचारात्मक वर्णनोंमें अपनी शक्तिको इतना केन्द्रित कर दिया है कि अन्य मनोरंजनोंके प्रसंगोंको वह विस्तार नहीं दे सका है।
प्रस्तुत रचनामें उपलब्ध उत्सवोंमें जन्मोत्सव, अभिषेकोत्सवे, वसन्तोत्सव, स्वयंवरोत्सर्वं, राज्याभिषेकोत्सव, युवराज-पदोत्सव, आदि प्रमुख हैं। अभिषेकोत्सवको छोड़कर बाकीके उत्सवोंका वर्णन अति संक्षिप्त है । यह अभिषेकोत्सव परम्परा प्राप्त है। इस विषयमें कवि अपने पूर्ववर्ती आचार्य गुणभद्र एवं असगसे प्रभावित है।
__ क्रीड़ाएँ दैनिक-जीवनके कार्योंसे श्रान्त-मनकी एकरसताको दूर करनेके लिए अनिवार्य हैं। कविने कुछ प्रसंगोंमें उनकी चर्चा की है। इनमें राजकुमार नन्दन, राजकुमार नन्द तथा युवराज विश्वनन्दिके वनविहार, पुरुरवा शबर एवं राजकुमार त्रिपृष्ठ द्वारा की जानेवाली आखेट-कीड़ाएँ, देवांगनाओं द्वारा माता प्रियकारिणीके सम्मुख प्रस्तुत अनेक क्रीड़ाएँ, तथा राजकुमार वर्धमान को वृक्षारोहण क्रीड़ा प्रमुख हैं।''
इन वर्णनोंमेंसे नन्दन-वन विहारके माध्यमसे कविने श्रृंगार रसकी उद्भावना तथा त्रिपृष्ठके मृगयावर्णनसे कविने रौद्र एवं वीर रसकी उद्भावनाका भी सुअवसर प्राप्त कर लिया है।
१. वड्ढमाण. ११७, हाह। २. . ६।१२-१६। ३. , २।३। ४. , ४।३-४ ।
१२१२, ३३५, ६।१।
६. वड्माण. ३।५। ७. , ११७. २।३.३६॥ ८. , २२१०, ३२४-२७ । ६.
हा । १०.
हा६७।
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