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प्रस्तावना
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एक दिन कनकध्वज अपनी प्रियतमाके साथ नन्दनवनमें गया, जहाँ अशोक-वृक्षके नीचे एक शिलापर सुव्रत नामक मुनिराजके दर्शन किये ( ५ ) । मुनिराजने कनकध्वजको सागार एवं अनगार धर्मोंका उपदेश दिया । कनकध्वजने उक्त धर्मोके साथ-साथ मूल-गुणों और उत्तर- गुणों को भी भली-भाँति समझकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली और कठोर तपस्या करके वह कापिष्ठदेव हुआ ( ६-८ ) । वहाँकी आयु भोगकर उसने च्यवन किया और उज्जयिनी नरेश वज्रसेनकी सुशीला नामक रानीकी कोख से हरिषेण नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्षोंके बाद वज्रसेनने हरिषेणको सारा राजपाट सौंपकर श्रुतसागर मुनिराजके पास दीक्षा ग्रहण कर ली ( ९-११ ) । राजा हरिषेण अनासक्त भाव से राजगद्दी पर बैठा। वह निरन्तर धार्मिक कार्यों में ही लीन रहा करता था । अपने कार्यकाल में उसने अनेक विशाल जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया तथा निरन्तर श्री, चन्दन, कुसुम, अक्षत आदि अष्ट- द्रव्योंसे वह पूजा-विधान करता रहता था । किन्तु अपने अपराजेय विक्रमसे राज्यश्रीको निष्कण्टक बनाये रखने में भी वह सदा सावधान बना रहा ( १२-१६ ) ।
इस प्रकार उसने कई वर्ष व्यतीत कर दिये। एक बार वह प्रमदवनमें मुनिराज सुप्रतिष्ठके दर्शनार्थ गया। वहाँ उनके उपदेशोंसे प्रभावित होकर उसने जिनदीक्षा ले ली । वह घोर तपश्चरण कर मरा और महाशुक्र नामके स्वर्ग में प्रीतिकर देव हुआ ( १७ ) । [ सातवीं सन्धि )
पूर्व - विदेह स्थित सीतानदी के किनारे क्षेमापुरी नामकी नगरी थी । जहाँ राजा धनंजय राज्य करते थे । उनकी कामविजयकी वैजयन्ती - पताकाके समान महारानी प्रभावतीकी कोख से वह प्रीतिंकर देवका जीव प्रियदत्त नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। जब वह प्रियदत्त युवक हुआ, तभी राजा धनंजयको वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह प्रियदत्तको राज्य सौंपकर क्षेमंकर मुनिके समीप दीक्षित हो गया ( १-२ ) । राजा प्रियदत्त एक दिन जब अपनी राज्य सभा में बैठा था तभी किसीने उसे सूचना दी कि "आपकी प्रहरण-शाला ( शस्त्रागार ) में शत्रु चक्रका विदारण करनेवाला सहस्रआरा-चक्र उत्पन्न हुआ है ।" इसके साथ ही उसने सर्वश्रेष्ठ रत्न - विकर्बुरित दण्ड- रत्न, करवाल रत्न, चूड़ामणि- रत्न, श्वेत छत्र - रत्न (३), काकिणी - रत्न, एवं चर्म - रत्न ( नामक सात अचेतन रत्न ), कन्या - रत्न, सेनापति- रत्न, स्थपति- रत्न ( शिल्पी), मन्त्री - रत्न ( पुरोहित ), गृहपति - रत्न ( कोषागारामात्य ), तुरंग रत्न एवं करि - रत्न ( नामक सात चेतन रत्नों ) के भी प्राप्त होने की सूचनाएँ दीं। इनके अतिरिक्त राजा प्रियदत्तको कल्पवृक्षके समान नौ निधियाँ भी प्राप्त हुईं। इन सबको भी प्राप्त करके राजा प्रियदत्त निरभिमानी हो बना रहा । वह दस सहस्र राजाओं के साथ तत्काल ही प्रहरणशाला गया तथा वहाँ चक्ररत्नकी पूजा की ( ४ ) 1
कुछ ही दिनोंमें राजा प्रियदत्तने उस चक्ररत्नके द्वारा बड़ी ही सरलता से पृथिवीके छहों खण्डों को अपने अधिकार में कर लिया । बत्तीस सहस्र नरेश्वरों, सोलह सहस्र देवेन्द्रों एवं मदानलमें झोंक देनेवाली श्रेष्ठ छियानबे सहस्र श्यामा कामिनियोंसे परिवृत वह चक्रवर्ती प्रियदत्त उसी प्रकार सुशोभित रहता था, जिस प्रकार कि अप्सराओंसे युक्त देवेन्द्र । चक्रवर्ती प्रियदत्तको वरासन, पादासन एवं शय्यासन प्रदान करनेवाली नैसर्प-निधि, सभी प्रकारके अन्नोंको प्रदान करनेवाली पाण्डु-निधि, सभी प्रकारके आभूषणोंको प्रदान करनेवाली पिंगल - निधि, सभी ऋतुओंके फलों एवं फूलोंको प्रदान करनेवाली काल-निधि, सोने एवं चाँदी आदिके बरतन प्रदान करनेवाली महाकाल- निधि, घन, रन्ध्र, तत, वितत आदि वाद्योंको प्रदान करनेवाली शंख-निधि, दिव्य वस्तुओंको प्रदान करनेवाली पद्म-निधि, प्रहरणास्त्र आदिको प्रदान करनेवाली माणव - निधि एवं प्रकाश करनेवाले रत्नोंको प्रदान करनेवाली सर्वरत्न नामकी निधि भी उसे प्राप्त हो गयी ( ५-६ ) । चक्रवर्ती प्रियदत्तने चौदह रत्नों एवं नौ निधियोंके द्वारा दशांग-भोगोंको भोगते हुए भी तथा मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा नमस्कृत रहते हुए भी अपने हृदयसे धर्मकी भावना न छोड़ी और इस प्रकार उसने तेरासी लाख पूर्व व्यतीत कर दिये ।
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