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वडमाणचरिउ
प्रीतिकर मुनि, कल्किपुत्र अजितंजय तथा आगामी तीर्थंकर आदि शलाकापुरुषों के चरितोंके वर्णन afa aurat भाँति ही विबुध श्रीधरने भी अनावश्यक समझकर छोड़ दिये हैं । गुणभद्रने मध्य एवं अन्त में दार्शनिक, आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं आचारमूलक विस्तृत वर्णनोंके लिए पर्याप्त अवसर निकाल लिया है । असगने भी मध्यमें यत्किचित् तथा अन्तमें उनका विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु विबुध श्रीधर ने ग्रन्थके मध्य में तो उपर्युक्त विषयों सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक नामोल्लेख मात्र करके ही काम चला लिया है तथा अन्तमें भी सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विषयोंको संक्षिप्त रूपमें प्रस्तुत किया है । भवावलियोंको भी उसने संक्षिप्त रूपमें उपस्थित किया है । इस कारण कथानक अपेक्षाकृत अधिक सरस एवं सहज ग्राह्य बन गया है ।
कवि श्रीधरने कथावस्तुके गठनमें यह पूर्ण आयास किया है कि प्रस्तुत पौराणिक कथानक काव्योचित बन सके, अतः उसने प्राप्त घटना-प्रसंगोंके पूर्वापर क्रम निर्धारण, पारस्परिक सम्बन्ध स्थापन तथा अन्तर्कथाओं का यथास्थान संयोजन कुशलतापूर्वक किया है । विविध पात्रोंके माध्यमसे लोक-जीवन के विविध पक्षोंकी सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कथावस्तुके रूप-गठन में कविने योग्यता, अवसर, सत्कार्यता एवं रूपाकृति नामक तत्त्वोंका पूर्ण ध्यान रखा है ।
३. पूर्व कवियोंका प्रभाव
विबुध श्रीधर बहुश्रुत एवं पूर्ववर्ती साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् प्रतीत होते हैं । 'वड्ढमाणचरिउ' का अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि उन्होंने महाकवि कालिदास, भारवि, हरिचन्द्र, वीरनन्दि और असग प्रभृति कवियोंके ग्रन्थोंका अध्ययन ही नहीं किया था, अपितु उपादान-सामग्री के रूपमें उनके कुछ अंशोंको भी ग्रहण किया था । प्राचीन-साहित्यमें आदान-प्रदानकी यह प्रवृत्ति प्रायः ही उपलब्ध होती है । इसका मूल कारण यह है कि कवियों में पूर्वकवियों या गुरुजनोंकी आदर्श-परम्पराओंके अनुकरणकी सहज प्रवृत्ति होती है । पूर्वागत परम्पराके साथ-साथ समकालीन साहित्यिक दृष्टिकोण तथा उनमें कविकी मौलिक उद्भावनाओंका अद्भुत सम्मिश्रण रहता है | इनसे अतीत एवं वर्तमान साहित्य- परम्पराकी अन्तः प्रवृत्ति एवं सौन्दर्यमूलक भावनाओं का इतिहास तथा उनके भावी सन्देश के इतिहासका निर्माण अनायास ही होता चलता है । कवि श्रीधरने जिनजिन पूर्व - रचित ग्रन्थोंसे सामग्री ग्रहण की, उसके सादृश्य अथवा प्रभावितांश इस प्रकार हैं
कालिदास — अन्येद्युरात्मानुचरस्य.... [ रघु. २१२६ ]
विबुध श्रीधर - अण्णेहि नरिद सुवेहिं जुत्तु सहयरिहिं.... [ वड्ढ १।७।१० ]
कालिदास - न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते [ कुमार. ५।१६ ]
विबुध श्रीधर - इय वयस भाउ ण समक्खियए [ वड्ढ. ६|६|१० ]
कालिदास - पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् [ रघु. २३ ]
विबुध श्रीधर - चउ-जलहि-पओहर रयण-खीरु - गोदुहिवि लेइ सो गोउ धीरु [ वड्ढ १|१३|१-२ ] भारवि - विषयोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसामिवाशयः ।
स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्म यः ॥ [ किरात. २/३ ] विबुध. - सो गय-दच्छु बुहेहि समासिउ ।
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साहिय-सत्थु सवयणु पयासिउ [ वड्ढ. ४।१५।१० ]
माघ - कान्तेन्दु-कान्तोत्पल - कुट्टिमेषु प्रतिक्षपं हर्म्यतलेषु यत्र ।
उच्चैरधः पातिपयोमुचोऽपि समूह मूहुः पयसां प्रणाल्यः ॥ [ शिशु. ३।४४ ] विबुध श्रीधर —— गेहगग लग्ग चंदोवलेहिं अणवरयमुक्क णिम्मलजलेहिं ॥ [ ९२९ ]
१३. वही ७६व पर्व ।
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