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वडमाणचरिउ श्रीधरने 'वड्डमाणचरिउ' में ऐसे कथानकोंकी योजना की है जिनसे महदुद्देश्यकी पूर्ति होती है। इसका कथाप्रवाह या अलंकृत वर्णन सुनियोजित और सांगोपांग है ।
___ नायक वर्धमानके पुरुरवा शबर ( २।१०), सुरौरवदेव ( २।११), मरीचि ( २३१४-१५ ), ब्रह्मदेव ( २।१६ ), जटिल ( २।१६ ), सौधर्मदेव ( २०१६ ), पुष्यमित्र ( २।१७ ), ईशानदेव ( २।१७ ), अग्निशिख ( २०१८ ), सानत्कुमार देव ( २०१८ ), अग्निमित्र ( २।१८), माहेन्द्रदेव ( २०१९), भारद्वाज विप्र
१), माहेन्द्रदेव (२।१९), स्थावर ( २।२२), ब्रह्मदेव ( ३१३ ), विश्वनन्दि ( ३१४), महाशुक्रदेव ( ३।१७ ), त्रिपृष्ठ ( ३।२३ ), सप्तम नारकी ( ६।९), सिंह (६११), प्रथम नारकी (६।११), सिंह ( ६।१३ ), सौधर्मदेव ( ६।१८), कनकध्वज (७२), कापिष्ठदेव (७८), हरिषेण (७।११), प्रीतिकरदेव ( ७.१७ ), प्रियदत्त ( ८२ ), सूर्यप्रभदेव ( ८1११), नन्दन ( ८1११ ), प्राणतदेव ( ८1१७ ) एवं महावीर ( ९।९)रूप भवावलियोंका जीवन विस्तृत कथानक रसात्मकता या प्रभावान्विति उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है। तीथंकर महावीरके एक जन्मकी ही नहीं, अपितु ३३ जन्मोंकी कथा उस विराटजीवनका चित्र प्रस्तुत करती है, जिस जीवनमें अनेक भवोंके अजित-संस्कार तीर्थंकरत्वको उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। इस काव्यमें महत्प्रेरणासे अनुप्राणित होकर मोक्ष-प्राप्ति रूप महदुद्देश्य सिद्ध होता है। यद्यपि रहस्यमय एवं आश्चर्योत्पादक घटनाएँ भी इस ग्रन्थमें वर्णित हैं, पर इन घटनाओंके निरूपणकी काव्यात्मकशैली इतनी गौरवमयी और उदात्त है कि जिससे नायकके विराट-जीवनका ज्वलन्त-चित्र प्रस्तुत हो जाता है। संस्कृतके लक्षण-ग्रन्थों के अनुसार महाकाव्यमें निम्न तत्त्वोंका रहना आवश्यक माना गया है
(१) सर्गबन्धता; (२) समग्र जीवन-निरूपण, अतएव इतिवृत्तका अष्ट सर्ग या इससे अधिक प्रमाण; (३) नगर, पर्वत, चन्द्र, सूर्योदय, उपवन, जलक्रोड़ा, मधुपान या उत्सवोंका वर्णन; (४) उदात्त गुणोंसे युक्त नायक एवं चतुर्वर्ग-प्राप्तिका निरूपण; (५) कथा वस्तुमें नाटकके समान सन्धियोंका गठन; (६) कथाके आरम्भमें मंगलाचरण एवं आशीर्वाद आदिका रहना तथा सर्गान्तमें आगामी कथावस्तुका सूचन करना; (७) शृंगार, वीर और शान्त इन तीन रसोंमें से किसी एक रसका अंगी रसके रूपमें और शेष सभी रसोंका अंग रूपमें निरूपण आवश्यक है। यतः कथावस्तु और चरित्र में एक निश्चित एवं क्रमबद्ध विकास तथा जीवनकी विविध सुख-दुखमयी परिस्थितियोंका संघर्षपूर्ण चित्रण रस-परिपाकके बिना सम्भव नहीं है; (८) सर्गान्तमें छन्दपरिवर्तन, क्योंकि चमत्कार-वैविध्य या अद्भुत-रसकी निष्पत्तिके हेतु एक सर्गमें अनेक छन्दोंका व्यवहार अनिवार्य-जैसा है; (९) महाकाव्यमें विविधता और यथार्थता दोनोंका ही सन्तुलन रहना चाहिए तथा इन दोनोंके भीतर ही विविध भावोंका उत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि महाकाव्यके प्रणेता प्राकृतिक सौन्दर्यके साथ नर-नारीके सौन्दर्य-चित्रण, समाजके विविध रीति-रिवाज एवं उसके बीच विकसित होनेवाले आचार-व्यवहारका निरूपण करता है; (१०) महाकाव्यका नायक उच्चकुलोत्पन्न होता है, उसमें धीरोदात्त-गुणोंका रहना आवश्यक है । नायकका आदर्श-चरित्र, समाजमें सद्वृत्तियोंका विकास एवं दुर्वृत्तियोंका विनाश करने में पर्णतया सक्षम होता है'। (११) महाकाव्यका उद्देश्य भी महत होता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके लिए वह प्रयत्नशील रहता है। संघर्ष, साधना, चरित्र-विकास आदिका रहना अनिवार्य होता है । महाकाव्यका निर्माण युग-प्रवर्तनकारी परिस्थितियों के बीचमें सम्पन्न किया जाता है ।
प्रस्तुत 'वड्डमाणचरिउ' में चतुर्विंशति-तीर्थंकरोंकी स्तुति तथा अपने आश्रयदाता साहू नेमिचन्दको
१. काव्यादर्श -१।१४-२४, तथा साहित्यदर्पण-३१५-२८, तथा ३५३ । २. काव्यादर्श-१२। ३. वड्ढमाण-११।
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