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वड्डमाणचरिउ
प्रकट हुई है, जिसने जलमें फेंके हुए पत्थरके टुकड़ेके समान असंख्यात लहरें उत्पन्न कर भावोंको आस्वाद्य बना दिया है।
अनुप्रास
'वड्डमाणचरिउ' में व्यंजनवर्णों की आवृत्ति द्वारा कविने अनुप्रासालंकारको सुन्दर योजना की है । देखिए उक्त विधिसे कविने निम्न पद्यांशोंमें कितना सुन्दर संगीत-तत्त्व भर दिया हैसो कणय-कूड-कोडिहिं वराई
कारावइ मणहर जिणहराइँ । (१।१२।७) उत्तमम्मि वासरम्मि उग्गयम्मि नेसरम्मि (२।३।१) तं निसुणेप्पिणु मुणि वणि संठिउ............(२।४।७) ........खयरामर-णर-णयणाणंदिर (२।११।९)
यमक
'वड्डमाणचरिउ' में श्रुत्यानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास, छेकानुप्रास तथा अन्त्यानुप्रासके साथ-साथ यमकालंकारके प्रयोग भी भावोत्कर्षके लिए कई स्थलोंपर हुए हैं । कविने रूप-गुण एवं क्रियाका तीव्र अनुभव करानेके हेतु इस अलंकारका प्रयोग किया है । यहाँ एक उदाहरण द्वारा प्रस्तुत काव्यकी मार्मिकता पर प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया जायेगा। कविने 'नन्द' नामक पुत्रके उत्पन्न होनेपर राजा नन्दन और उसकी पत्नी रानी प्रियंकराके पारस्परिक-स्नेह, सौहार्द एवं समर्पित-भावको मूर्तमान करने हेतु यमकालंकारका प्रयोग किया है । यथा
सामिणो पियं कराए सुंदरो पियंकराए । २।३।२ उक्त पद्यांशमें 'पियंकराए' पद दो बार भिन्न-भिन्न अर्थों में आया है। एक स्थलपर तो उसका अर्थ प्रियकारिणी अर्थात मन, वचन एवं कार्यसे प्रिय करने एवं सोचनेवाली तथा दूसरा प्रियंकराए पद उसकी रानीका नाम-प्रियंकरा बतलाता है। इसी प्रकार जणणे -जणणे (४।१।१९), दीवउ-दीवउ (४।१५।५), करवालु-करवालु (५।७।५), तणउ-तणउ (७।१५।५), भीमहो-भीमहो (५।१७।४), चक्कु-चक्कु (८।३।७), ' सिद्धत्थु-सिद्धत्थु (९।३।१), संकासु-संकासु (९।३।२), कंदु-कंदु (९।३।५), संसु-संसु (९।३।६), संकर-संकर (१०॥३॥४) आदि ।
श्लेष
श्लेषालंकारमें भिन्न-भिन्न अर्थवाले शब्दोंकी योजना कर काव्यमें चमत्कार उत्पन्न किया गया है । यथालायण्णु चरंतु विचित्तु तं जि
अयमहुरत्तणु पाइडइ जंजि । सवित्तु कलाहरु हरिसयारि
पुण्णिदु व सुवणहँ तम-वियारि ॥ (८।२।५-६) उपर्युक्त पद्यांशमें लायण्णु (लावण्य) एवं सव्वित्तु (सद्वृत्त) श्लेषार्थक शब्द हैं । 'लायण्ण'का एक अर्थ है लावण्य अर्थात् सलोनापन-सुन्दर तथा दूसरा अर्थ है खारापन। इसी प्रकार 'सन्वित्तु'का एक अर्थ है सदाचारी तथा दूसरा अर्थ है गोल-मटोल । 'वड्डमाणचरिउ' में श्लेषालंकारका प्रयोग अल्पमात्रामें ही उपलब्ध है।
कविने अर्थालंकारोंमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, स्वभावोक्ति, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, समासोक्ति एवं अतिशयोक्ति आदि अलंकारोंके प्रयोग विशेष रूपसे किये हैं। कविने किसी वस्तु की रूप-गुण सम्बन्धी विशेषता
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