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वड्डमाणचरिउ
भी ९ श्लोक प्राप्त हैं उनमें से ४ शार्दूलविक्रीडित, ( दे. सन्धि सं. १,२,७,९) २ मालिनी, ( दे. सन्धि सं. ३,५) २ वसन्ततिलका, ( सन्धि सं.४,६) तथा १ उपेन्द्रवज्रा ( सन्धि सं.८) नामक छन्द हैं। ये श्लोक कविने अपने आश्रयदाताके लिए आशीर्वचनके रूपमें प्रत्येक सन्धिके अन्तमें ग्रथित किये हैं।
उक्त श्लोकोंकी भाषा, रूप-गठन, छन्द-वैविध्य आदिके देखनेसे यह स्पष्ट विदित होता है कि कवि संस्कृत-भाषाका अच्छा ज्ञाता था। उसने मधुर एवं ओज वर्णोका प्रयोग कर कवितामें सुन्दर चमत्कार उत्पन्न करने का आयास किया है। निम्न पद्यमें उसने सर्वगुणान्वित नेमिचन्द्र के गुणोंकी वैदर्भी-शैलीमें चर्चा करते हए लिखा है
शृण्वन्तो जिनवेश्मनि प्रतिदिनं व्याख्यां मुनीनां पुरः
प्रस्तावान्नतमस्तकः कृतमुदः सन्तोख्यधुर्यः कथा। धत्ते भावय तित्थमुत्तमधिया यो भावयं भावना
कस्यासावुपमीयते तव भुवि श्रीनेमिचन्द्रः पुमान् ॥२॥ उक्त पद्यमें दीर्घ समासान्त पदोंका प्रायः अभाव है। कविने छोटे-छोटे पदोंके चयन द्वारा भावोंको घनीभूत बनाने की पूर्ण चेष्टा की है । भाषाकी दृष्टिसे उक्त पद्य एक आदर्श पद्य माना जा सकता है।
प्रशस्ति-पद्योंमें कविने प्रायः समस्त धर्मका सार भर दिया है। जिन पद्योंमें उसने धर्म-तथ्योंका आकलन किया है, उन पद्योंकी पदावली समास-बहुला है । आश्रयदाताकी प्रशंसाका चित्रण करते हुए समासान्त पदावलीमें कवि द्वारा धर्म-तथ्योंके चौखटे फिट कर दिये गये हैं । यथा
प्रजनितजनतोषस्त्यक्तशङ्कादिदोषो
दशविधवृषदक्षो ध्वस्तमिथ्यात्वपक्षः । कुल-कमल-दिनेशः कीर्तिकान्तानिवेशः
शुभमतिरिह कैर्न श्लाध्यते नेमिचन्द्रः ॥३॥
कवि-विरचित अन्य संस्कृत श्लोकोंमें भी उसकी निरीक्षण-शक्तिकी प्रबलता और उर्वर-कल्पनाओंके सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। उसने प्रसंगानुकूल क्लिष्ट और कोमल शब्दोंको स्थान दिया है तथा आवश्यकता- " नुसार समासका प्रयोग कर सुकुमार भावोंकी सुन्दर अभिव्यंजना की है ?
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, विबुध श्रीधरकी प्रमुख भाषा अपभ्रंश है। 'वड्ढमाणचरिउ' में उसने परिनिष्ठित अपभ्रंशका प्रयोग किया है, किन्तु उसमें कहीं-कहीं ऐसे भी प्रयुक्त हैं, जो आधुनिक भारतीय भाषाओंसे समकक्षता रखते हैं। 'वड्डमाणचरिउ में राजस्थानी, व्रज, हरियाणवी एवं बुन्देलीके अनेक शब्द तथा कुछ शब्द भोजपुरी और मैथिलीके भी उपलब्ध होते हैं। इन शब्दोंको प्रस्तुत करनेके पूर्व कविकी अपभ्रंश-भाषाके कुछ विशेष ध्वनि-परिवर्तनोंका संक्षिप्त अध्ययन आवश्यक समझ कर उसे प्रस्तुत किया जा रहा है।
वड्ढमाणचरिउमें अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ (इनके अनुनासिक तथा निरनुनासिक दोनों हो रूप हैं) तथा प्र.ऐ ओ इन ११ स्वरोंके प्रयोग मिलते हैं तथा व्यंजनों में क, ख, ग, घ; च, छ, ज, झ; ट, ठ, ड, ढ, ण; त, थ, द, ध, न; प, फ, ब, भ, म; य, र, ल, व; स, ह के प्रयोग मिलते हैं।
स्वर-वर्ण विकार
१. संस्कृतकी 'ऋ' ध्वनिके स्थानपर 'वडढमाण चरिउ' में अ, इ, उ, ए एवं रि के प्रयोग मिलते हैं । यथा-णच्च र नृत्य (४।३।१३), किमि ( कृमि ( ६।११३८), इड्ढिवंत (ऋद्धिवन्त (१०।१९।७),
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