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प्रस्तावना
३७
प्रशस्ति' के अनन्तर कथावस्तुका प्रारम्भ किया गया है। नगर, वन, नदी, पर्वत, सन्ध्या, चन्द्रोदय, रात्रि, अन्धकार', प्रभात', सूर्य१२, सैनिक-प्रयाण, युद्ध, दिग्विजय", स्वयंवर, दूत-प्रेषण आदिके सुन्दर चित्रण हैं । इस ग्रन्थमें कुल १० सन्धियाँ हैं । शान्तरस अंगी रसके रूपमें प्रस्तुत हुआ है । गौणरूपमें शृंगार, वीर, भयानक एवं रौद्र रसोंका परिपाक हुआ है । पज्झटिका, अडिल्ला, घत्ता, दुवई, मलयविलसिया, चामर, भुजंगप्रयात, मोत्तियदाम, चन्द्रानन, रड्डा आदि विविध अपभ्रंश-छन्दोंके प्रयोग कर समस्त काव्यमें महदुद्देश्य-मोक्ष-पुरुषार्थका चित्रण किया गया है। कथाके नायक वर्धमान-महावीर धीरोदात्त हैं। वे त्याग, सहिष्णुता, उदारता, सहानुभूति आदि गुणोंके द्वारा आदर्श उपस्थित करते हैं।
प्रबन्ध-काव्योचित गरिमा, कथानक-गठन तथा महाकाव्योचित वातावरणका निर्माण कविने मनोयोग पूर्वक किया है। अतः इतिवृत्त, वस्तुवर्णन, रसभाव एवं शैलीकी दृष्टिसे यह एक पौराणिक-महाकाव्य है । नख-शिख-चित्रण द्वारा नारी-सौन्दर्यके उद्घाटनमें भी कवि पीछे नहीं रहा । पौराणिक-आख्यानके रहते हुए भी युग-जीवनका चित्रण बड़े ही सुन्दर ढंगसे प्रस्तुत किया गया है। धार्मिक और नैतिक आदर्शोंके साथ प्रबन्ध-निर्वाहमें पर्ण पटता प्रदर्शित की गयी है। पात्रोंके चरित्रांकनमें भी कवि किसी से पीछे नहीं है। मनोवैज्ञानिक-द्वन्द्व, जिनसे महाकाव्यमें मानसिक तनाव उत्पन्न होता है, पिता-पुत्र एवं त्रिपृष्ठ-हयग्रीव-संवादमें • वर्तमान है। इस प्रकार उद्देश्य, शैली, नायक, रस एवं कथावस्तु-गठन आदि की दृष्टिसे प्रस्तुत रचना एक सुन्दर महाकाव्य है।
६. अलंकार-विधान अलंकार-विधान द्वारा काव्यमें सौन्दर्यका समावेश होता है। वामन, दण्डी, मम्मट प्रभृति काव्यशास्त्रियोंने काव्य-रमणीयताके लिए अलंकारोंका समावेश आवश्यकमाना है। यथार्थ तथ्य यह है कि भावानुभाव वृद्धि अथवा रसोत्कर्षको प्रस्तुत करने में अलंकार अत्यन्त सहायक होते हैं। अलंकार-विधान द्वारा काव्यगत-अर्थका सौन्दर्य चित्तवृत्तियोंको प्रभावित कर भाव-गाम्भीर्य तक पहुँचा देता है। रसानुभूतिको तीव्रता प्रदान करने की क्षमता अलंकारोंमें सबसे अधिक होती है। अलंकार ही भावोंको स्पष्ट एवं रमणीय बनाकर रसात्मकताको वृद्धिंगत करते हैं ।
विबुध श्रीधरने ऐसे ही अलंकारोंका प्रयोग किया है, जो रसानुभूतिमें सहायक होते हैं। वड्डमाणचरिउमें उन्हीं स्थलोंपर अलंकृत पद्य आये हैं, जहाँ कविको भावोद्दीपनका अवसर दिखाई पड़ा है। क्योंकि भावनाओंके उद्दीपनका मूल कारण है मनका ओज, जो मनको उद्दीप्त कर देता है तथा मनमें आवेग और संवेग उत्पन्न कर पूर्णतया उसे द्रवित कर देता है।
शब्दालंकारोंकी दृष्टिसे अपभ्रंश-भाषा स्वयं ही अपना ऐसा वैशिष्ट्य रखती है, जिससे बिना किसी आयासके ही अनुप्रासका सृजन हो जाता है। किन्तु कुशल कवि वही है, जो अनुप्रासके द्वारा किसी विशेष भावनाको किसी विशेष रूपसे उत्तेजित कर सके। वड्डमाणचरिउमें कई स्थलोंपर अनुप्रासकी ऐसी ही योजना
१. वड्ढ माण. १२११३।१-३ । २. बड्ढमाण. १६३४ । ३. वही, १०४। ४. वही, २।४। ५. वही, १११५॥ ६. वही २१७, ४।२३-२४, ६।१३-१४, १०।१३-१६ । ७. वही,७१४-१५ । ८. वही, १५ । ६. वही, ७.१५-१६ ।
१०. वही, ७.१५ । ११. वही, ७।१६। १२. वही,७।१४। १३. वही, ४।२१-२३ । १४. वही,१०-२३ । १५. वही, २०१३ । १६. वही, ६७। १७. वही, ०१-५॥ १८. वही, हा
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