Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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(१२) अवकाश , (१३) तृणफलक, (१४) संरक्षणता, (१५) संस्थापनता, (१६) प्राभृतिका, (१७) आग्नि, (१८) दीप, (१९) अवधान, (२०) वत्स्यक्ष, (२१) भिक्षाचर्या, (२२) पानक, (२३) लेपालेप, (२४) लेप, (२५) आचाम्ल (२६) प्रतिमा, (२७) मासकल्प। जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हुए -क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है।
स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं।
श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हुए विहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहार मार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभ शकुन देखना आदि का वर्णन है।
स्थविरकल्पिकों की समाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है१. प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका
प्रायश्चित्त। २. निष्क्रमण-उपाश्रय से बाहर निकलने का समय। ३. प्राभृतिका-गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है, उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना
चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त। ४. भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी आवश्यक वस्तुएं। ५. कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से
लाभ। गच्छशतिकादि-आधाकर्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदार्थिकमिश्र,
क्रीतकृत, पूतिकार्मिक और आत्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद। ७. अनुयान-रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष। ८. पुरःकर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष। ९. ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, . चिकित्सा के लिए वैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका,
रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले आचार्य को लगने वाले
दोष और उनके प्रायश्चित्त का विधान। १०. गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालंदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा।
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