Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छट्ठा उद्देशक ]
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२. मौखर्य - अत्यधिक बोलना वाणी का दोष है, ज्यादा बोलने वाला विनय आदि गुणों की उपेक्षा करता है, अप्रीति का भाजन बनता है, ज्यादा बोलने वाला विचार करके नहीं बोलता है। अतः वह असत्य एवं अनावश्यक बोलता है। इस प्रकार अतिभाषी सत्यमहाव्रत को दूषित करता है। आगमों साधुओं को अनेक जगह अल्पभाषी कहा है। श्रावक के आठ गुणों में भी अल्पभाषी होना एक गुण कहा गया है।
३. चक्षुर्लोल्य- इधर-उधर देखने वाला ईर्यासमिति का पालन नहीं कर सकता है, उसकी ईर्यासमिति भंग होती है। चलते हुए इधर-उधर देखने की प्रवृत्ति साधु के लिये उचित नहीं है। क्योंकि ईर्याशोधन न कर सकने के कारण त्रस स्थावर प्राणियों की हिंसा होना सम्भव है ।
चक्षु - इन्द्रिय का संयम प्रथम महाव्रत में जीवरक्षा के लिए है, चतुर्थ महाव्रत में चक्षु-इन्द्रिय का संयम स्त्री आदि का निरीक्षण न करने के लिए है। पांचवें महाव्रत की दूसरी भावना ही चक्षु - इन्द्रिय का संयम रखना है ।
४. तिंतिनक – मनोज्ञ आहारादि प्राप्त न होने पर जो खिन्न होकर बड़बड़ करता रहता है एवं इच्छित आहार की प्राप्ति में एषणा के दोषों की उपेक्षा भी करता है इस प्रकार वह तिनतिनाट करने के स्वभाव से एषणासमिति को भंग करने वाला कहा गया है।
५. इच्छालोलुप - सरस आहार की, वस्त्र - पात्रादि उपकरणों की तथा शिष्य आदि की अत्यन्त अभिलाषा रखने वाला भिक्षु अपरिग्रहप्रधान मुक्तिमार्ग का अनुसरण नहीं करता है । क्योंकि मुक्तिमार्ग रूप संयम में इच्छाओं एवं ममत्व का कम होना ही प्रमुख लक्षण है। इसका नाश करने वाला इच्छालोलुप साधक मुक्तिमार्ग का नाश करने वाला कहा गया है।
६. भिध्या निदानकरण- लोभवश या आसक्तिवश मनुष्य देव सम्बन्धी या अन्य किसी भी प्रकार का निदान (धर्माचरण के फलस्वरूप लौकिक सुखों की प्राप्ति का संकल्प) करने वाला भिक्षु इन निदान - संकल्पों से दूसरे भवों में भी मोक्ष प्राप्त न करके नरकगति आदि में परिभ्रमण करता रहता है । इस प्रकार यह निदानकरण मोक्षप्राप्ति का विच्छेद करने वाला है।
किसी प्रकार का लोभ या आसक्ति न रखते हुए केवल ज्ञानादि गुणों की आराधना के लिए या मुक्तिप्राप्ति के लिए परमात्मा से याचना - प्रार्थना करना प्रशस्त भाव है एवं अनिदान है ।
यथा - १. तित्थयरा से पसीयंतु ।
२. आरुग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु । ३. सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।
- आव. अ. २, गा. ५-६-७ इस प्रकार की प्रार्थना में लोभ नहीं है, इसलिए यह याचना मोक्षसाधक है, बाधक नहीं। ऐसा टीकाकार ने 'भिज्जा' शब्द की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है। वह टीका इस प्रकार है
'भिज्ज' त्ति लोभस्तेन यद् निदानकरणं..... । भिज्जा ग्रहणेन यदलोभस्य भवनिर्वेदमार्गानुसारितादिप्रार्थनं तन्न मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरित्यावदितं प्रतिपत्तव्यम् ।
- बृहत्कल्पभाष्य भाग ६