Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्यवहारसूत्र
इस विधान से यह फलित होता है कि उन्हें अपने-अपने पात्र अलग-अलग रखने होते हैं एवं शामिल लाये गये आहार को सम्मिलित होकर नहीं खा सकते हैं। इसका कारण यह है कि वह अलग व्यवहार रखने वाला पारिहारिक भिक्षु है । कारण से एवं आज्ञा से आहार साथ लाना परिस्थितिजन्य अपवाद है, किन्तु पात्र लेने एवं साथ में आहार खाने के अलगाव में कोई बाधा न होने से उसके सामान्य विधान का ही पालन करना आवश्यक होता है ।
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भिक्षु का शरीर संयम और तप में सहायक होता है, अत: इसे आहार देना आदि प्रवृत्ति करना आवश्यक है। अनासक्त भाव से स्व-शरीर हेतु की गई प्रवृत्ति भी निर्जरा का हेतु है, अतः सूत्र में 'अप्पणो वेयावडियाए' अर्थात् ' अपने वैयावृत्य के लिए' ऐसे शब्द का प्रयोग किया गया है।
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सूत्र में आहार करने के साधनरूप में पात्रों के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया गया है१. स्वयं के (आहार लेने के) पात्र में ।
२. स्वयं के 'पलासक' (मात्रक) में ।
३. स्वयं के कमण्डलक (पानी लेने के पात्र) में ।
४. स्वयं के खोबे में अर्थात् दोनों हाथों से बनी अंजलि में ।
५. स्वयं के हाथ में अर्थात् एक हाथ की पसली में ।
यहां स्वयं के पलासक का अर्थ टीकाकार के 'ढाक के पत्तों से बना दोना' ऐसा किया है। सूत्र में 'सयंसि' पद प्रत्येक शब्द के साथ है। साधु के स्वयं का पात्र वही होता है जो सदा उसके पास रहता है एवं जो आगमोक्त हो ।
पलास के पत्तों का दोना रखना आगम में निषिद्ध है और वह अधिक समय धारण करने योग्य भी नहीं होता है। अतः 'स्वयं का पलासक' यह कथन 'मात्रक' के लिए ही समझना उपयुक्त है एवं मात्रक रखना आगमसम्मत भी है ।
- दशा. द. ८
सूत्र के विधान में ही ऐसा ज्ञात होता है कि वे भिक्षु यदि पात्र की ऊनोदरी करने वाले हों तो स्वयं के पात्रक में, हाथ में या खोबे (अंजली) में ले-लेकर भी खा सकते हैं।
चौदहपूर्वी श्रीभद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित इस व्यवहारसूत्र में पात्र की दृष्टि से तीन नाम कहे गये हैं। इससे यह फलित होता है कि भिक्षु सामान्यतया भी अनेक पात्र रख सकता है, अतः एक पात्र ही रखने की परम्परा का ऐतिहासिक कथन आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता।
छेदसूत्रों में परिहार तप एवं पारिहारिक भिक्षु सम्बन्धी निर्देशों के कथन की बहुलता को देखते हुए इस विधि का विच्छेद मानना भी उचित प्रतीत नहीं होता है। इस विधि के मुख्य आगमसम्मत नियम ये हैं— ' आयंबिल, उपवास एवं एकांतवास से मौनपूर्वक आचार्य आदि के साथ रहना, सहायप्रत्याख्यान एवं सम्भोग - प्रत्याख्यान करना, इत्यादि हैं, जिनका कि वर्तमान में पालन करना सम्भव है । ' व्याख्याओं में इसका विच्छेद माना है एवं साध्वी के लिए भी निषिद्ध कहा है, किन्तु ऐसा उल्लेख आगमों में नहीं है और न ही किसी आगमविधान से ऐसा सिद्ध होता है ।