Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 446
________________ पांचवां उद्देशक] [३६५ विस्तृत व्याख्या उद्देशक ३ सूत्र ३ के विवेचन से जान लेना चाहिए। उद्देशक तीन और पांच के इन सूत्र-विधानों में आचारप्रकल्प का जो महत्त्व बताया गया है, उसे लक्ष्य में रखकर एवं अनुप्रेक्षा करके यदि उसकी रचना के विषय में निर्णय किया जाय तो सहज ही यह निर्णय हो जाता है कि इस व्यवहारसूत्र के रचयिता स्थविर भद्रबाहुस्वामी ने या उनके बाद के किसी स्थविर ने 'आचारप्रकल्प' की रचना नहीं की है किन्तु यह गणधररचित है और प्रारंभ से ही जिनशासन के सभी साधु-साध्वियों को आवश्यक रूप से अध्ययन कराया जाने वाला शास्त्र है। वर्तमान में यह शास्त्र आचारांग + निशीथ उभय सूत्रों का सूचक है। दशाश्रुतस्कंध के नियुक्तिकार ने नियुक्ति की प्रथम गाथा में ही स्थविर श्री प्रथम भद्रबाहुस्वामी को वंदन-नमस्कार करते हुए उन्हें 'तीन छेदसूत्रों (दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र) की रचना करने वाले' ऐसे विशेषण से विभूषित किया है और श्रीभद्रबाहुस्वामी ने अपने द्वारा रचित (निएंढ) इस व्यवहारसूत्र में सोलह बार आचारप्रकल्प का निर्देश करते हुए अनेक प्रकार के विधान किए हैं। इतना स्पष्ट होते हुए भी ऐतिहासिक भ्रान्तियों के कारण वर्तमान के इतिहासज्ञ इस सूत्र के रचनाकार और उनके समय के विषय में अपने संदिग्ध विचार प्रस्तुत करते हैं, यह अत्यंत खेद का विषय है। आचारप्रकल्प संबंधी व्यवहारसूत्र के विधानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अध्ययनव्यवस्था में आचारांग-निशीथसूत्र को अर्थ-परमार्थ सहित कंठस्थ करना प्रत्येक साधु-साध्वी के लिये अत्यंत आवश्यक है तथा स्वाध्याय आदि के द्वारा उसे कण्ठस्थ रखना भी आवश्यक है। जो कोई भी श्रमण या श्रमणी इसके अध्ययन की योग्यता वाले नहीं होते हैं या इनका अध्ययन नहीं करते हैं अथवा अध्ययन करने के बाद उसका स्वाध्याय न करके विस्मृत कर देते हैं, वे ही श्रमण या श्रमणी जिनशासन के किसी भी पद को ग्रहण करने में या पूर्व ग्रहीत को धारण करने के अयोग्य होते हैं, अर्थात् उन्हें कोई पद नहीं दिया जा सकता है और पहले से किसी पद पर हों तो उन्हें पद से हटा दिया जाता है। वे सिंघाड़ाप्रमुख बनकर भी विचरण करने का अधिकार नहीं रखते हैं तथा किसी भी प्रकार की गणव्युत्सर्गसाधना अर्थात् एकलविहार, संभोग-प्रत्याख्यान आदि साधनाएँ भी नहीं कर सकते हैं। ___आचारप्रकल्प का धारक भिक्षु ही जघन्य गीतार्थ या जघन्य बहुश्रुत कहा गया है। वही स्वतंत्र विहार या गोचरी के योग्य होता है। अबहुश्रुत या अगीतार्थ की गवेषणा से प्राप्त पदार्थों के उपयोग करने का भी भाष्य में निषेध किया गया है एवं प्रायश्चित्त कहा गया है। ___वर्तमान में पूर्वो का ज्ञान विच्छेद मानना तो आगमसम्मत है, किन्तु अन्य सूत्रों का विच्छेद होना नहीं कहा जा सकता है। अतः क्षेत्र या काल की ओट लेकर इन व्यवहारसूत्रकथित विधानों के आचरण का विच्छेद मानना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि वर्तमान में दीक्षित होने वाले अनेक नवयुवक श्रमण-श्रमणियों को यदि योग्य अध्यापन कराने वाले मिलें तो वे तीन वर्ष में इतना अध्ययन कंठस्थ अवश्य कर सकते हैं। किन्तु अत्यंत खेद के साथ कहना पड़ता है कि अध्ययन के क्षेत्र में उदासीनता

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