Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 521
________________ ४४०] [व्यवहारसूत्र भी आवश्यक ही समझना चाहिए। इन दोनों चन्द्रप्रतिमाओं की आराधना एक-एक मास में की जाती है। इन उक्त नियमों के अनुसार यदि आहार मिले तो ग्रहण करे और न मिले तो ग्रहण न करे अर्थात् उस दिन उपवास करे। प्रतिमाधारी भिक्षु भिक्षा का समय या घर की संख्या निर्धारित कर लेता है और उतने समय तक या उतने ही घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता है। आहारादि के न मिलने पर उत्कृष्ट एक मास की तपश्चर्या भी हो जाती है। किन्तु किसी भी प्रकार का अपवाद सेवन वह नहीं करता है। भाष्य में बताया है कि ये दोनों प्रतिमाएं बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला, तीन संहनन वाला और नव पूर्व के ज्ञान वाला भिक्षु ही धारण कर सकता है। भाष्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि 'सव्वेहिं दुप्पय-चउप्पय-माइएहिं आहार कंखीहिं सत्तेहिं पडिणियत्तेहिं' इतना पाठ भाष्यकार के सामने नहीं था। उन्होंने क्रमशः शब्दों की एवं वाक्यों की व्याख्या की है। किन्तु इस वाक्य की व्याख्या नहीं की है और इस वाक्य के भावार्थ को आगे आए 'णिज्जुहित्ता बहवे....' इस सूत्रांश की व्याख्या में स्पष्ट किया है। कुछ शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-व्युत्सृष्टकाय-शरीर की शुश्रूषा एवं औषध का त्याग। चियत्तदेहे-शरीरपरिकर्म (अभ्यंगन, मर्दन) का त्याग करना एवं वध-बन्धन किये जाने पर प्रतीकार या सुरक्षा नहीं करना। पांच प्रकार के व्यवहार ३. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-१. आगमे, २. सुए, ३. आणा, ४. धारणा, ५. जीए। १. जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। २. णो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। ३. णो से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेज्जा। ४. णो से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा। ५. णो से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा। इच्चेएहिं पंचहिं ववहारेहिं ववहारं पट्टवेज्जा, तं जहा-१. आगमेणं, २. सुएणं ३. आणाए, ४. धारणाए, ५. जीएणं। जहा-जहा से आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए तहातहा ववहारं पट्टवेजा। ___प०-से किमाहु भंते? उ०-आगमबलिया समणा निग्गंथा।इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया-जया, जहिं-जहिं, तया-तया, तहि-तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवड़।

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