Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 530
________________ दसवां उद्देशक] [४४९ १६. स्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. वय-स्थविर, २. श्रुत-स्थविर, ३. पर्यायस्थविर। १. साठ वर्ष की आयु वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ वयस्थविर हैं। २. स्थानांग-समवायांग के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ श्रुतस्थविर हैं। ३. बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ पर्यायस्थविर हैं। विवेचन-'भूमि' शब्द यहां 'अवस्था' अर्थ में प्रयुक्त है। जो स्थिर स्वभाव वाले हो जाते हैं वे अपूर्ण या चंचल नहीं होते हैं। अत: वे स्थविर कहे जाते हैं। (१) वयस्थविर-सूत्र में गर्भकाल सहित ६० वर्ष की उम्र वालों को वयस्थविर सूचित किया है और व्यव. भाष्य उद्दे. ३ सूत्र ११ में ७० वर्ष की वय वाले को स्थविर कहा है। वहां उसके पूर्व की अवस्था को प्रौढ अवस्था कहा है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, इनमें विरोध नहीं समझना चाहिए। (२) श्रुतस्थविर-स्थानांग, समवायांगसूत्र को कंठस्थ धारण करने वाला अर्थात् आचारांगादि चार अंग, चार छेद एवं उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र को अर्थसहित कण्ठस्थ धारण करने वाला श्रुतज्ञान की अपेक्षा श्रुतस्थविर कहा जाता है। (३) पर्यायस्थविर-संयमपर्याय के बीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर भिक्षु 'पर्यायस्थविर' कहा जाता है। ये तीनों प्रकार के स्थविरत्व परस्पर निरपेक्ष हैं अर्थात् स्वतंत्र हैं। इस सूत्र में ये तीनों प्रकार के स्थविर साधु-साध्वियों की अपेक्षा से ही कहे गये हैं। इन स्थविरों के प्रति क्या-क्या व्यवहार करना चाहिए, इसका भाष्य में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया गया है। (१) जन्मस्थविर को काल-स्वभावानुसार आहार देना, उसके योग्य उपधि, शय्यासंस्तारक देना अर्थात् ऋतु के अनुकूल सवात-निर्वात स्थान और मृदु संस्तारक देना तथा विहार में उसके उपकरण और पानी उठाना इत्यादि अनुकम्पा करनी चाहिए। (२) श्रुतस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, आसनप्रदान, पाद-प्रमार्जन करना करवाना। उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष में गुणकीर्तन-प्रशंसा करना, उनके समक्ष उच्च शय्या आसन से नहीं बैठना, उनके निर्देशानुसार कार्य करना। (३) पर्यायस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, वंदन करना, खमासमणा देना, उनका दण्डादि उपकरण ग्रहण करना एवं उचित विनय करना। ये स्थविर गण की ऋद्धिरूप होते हैं। इनका तिरस्कार, अभक्ति आदि करना विराधना का कारण है, ऐसा करने से गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।

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