Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दसवां उद्देशक]
[४४५ इन गुणों को और अभिमान को संबंधित करके चौभंगियों का कथन किया गया है। कुछ साधु गण के लिए उक्त कार्य करके भी अभिमान नहीं करते हैं। ऐसे साधु ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं। प्रत्येक साधक को इस प्रथम भंग के अनुसार रहने का प्रयत्न करना चाहिए।
दूसरा भंग आत्मा के लिए पूरी तरह निकृष्ट एवं हेय है। क्योंकि कार्य तो कुछ करना नहीं और व्यर्थ में घमंड करना सर्वथा अनुचित है।
तीसरा भंग मध्यम है अर्थात् दूसरे भंग की अपेक्षा तीसरा भंग आत्मा का अधिक अहित करने वाला नहीं है तथा छद्मस्थ जीवों में ऐसा होना स्वाभाविक है। अध्यात्मसाधना में काम करके उसका घमंड करना भी एक अवगुण है। इससे आत्मगुणों का विकास नहीं होता है।
चौथा भंग सामान्य साधुओं की अपेक्षा से है। इसमें गुण नहीं है तो अवगुण भी नहीं है, ऐसे भिक्षु संयम में सावधान हों तो अपनी आराधना कर सकते हैं, किंतु वे गणहित के कार्यों में सक्रिय नहीं होते। इस कारण इस भंग वाले अधिक निर्जरा भी नहीं करते तथा उनके विशेष कर्मबंध और पुण्यक्षय भी नहीं होता है।
इन भंगों का चिंतन करके आत्मपरीक्षा करते हुए शुद्ध से शुद्धतर अवस्था में आत्मशक्ति का विकास करना चाहिए। अर्थात् अपने क्षयोपशम के अनुसार गच्छहित एवं जिनशासन की प्रभावना में योगदान देना चाहिए। साथ ही आत्मा में लघुता का भाव उपस्थित रखते हुए स्वयं का उत्कर्ष और दूसरों का तिरस्कार-निंदा आदि नहीं करना चाहिए। क्योंकि कषायों की उपशांति और आत्मशांति की प्राप्ति करना ही साधना का प्रमुख लक्ष्य है, जिसके विपरीत मानकषाय की वृद्धि होना किसी भी पुरुषार्थ का अच्छा परिणाम नहीं है, अपितु दुष्पपरिणाम है। इसलिए इसका विवेक रखना आवश्यक है। धर्मदृढता की चौभंगियां
९. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. रूवं नाममेगे जहइ, नो धम्म, २.धम्म नाममेगे जइह, नो रूवं, ३. एगे रूवं वि जइह, धम्मं वि जहइ, ४. एगे नो रूवं जहइ, नो धम्म जहइ।
१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. धम्मं नाममेगे जहइ, नो गणसंठिइं, २. गणसंठिई नाममेगे जहइ, नो धम्मं, ३. एगे गणसंठिइं वि जहइ, धम्मं वि जहइ, ४. एगे नो गणसंठिइं जहइ, नो धम्मं जहइ।
११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. पियधम्मे नाममेगे, नो दढधम्मे, २. दढधम्मे नाममेगे, नो पियधम्मे, ३. एगे पियधम्मे वि, दढधम्मे वि, ४. एगे नो पियधम्मे, नो
दढधम्मे।
९. चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे-१. कोई रूप (साधुवेष) को छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है। २. कोई धर्म को छोड़ देता है पर रूप को नहीं छोड़ता है। ३. कोई रूप भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है। ४. कोई न रूप को छोड़ता है और न धर्म को छोड़ता है।