Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 520
________________ दसवां उद्देशक] [४३९ जिस प्रकार जौ (धान्य) का एक किनारा पतला होता है, फिर मध्य में स्थूल होता है एवं अन्त में पतला होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में एक दत्ति, मध्य में पन्द्रह दत्ति, अन्त में एक दत्ती और बाद में उपवास किया जाता है, उसे 'यवमध्यचन्द्रप्रतिमा' कहा जाता है। जिस प्रकार वज्ररत्न या डमरू का एक किनारा विस्तृत, मध्यभाग संकुचित और दूसरा किनारा विस्तृत होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में पन्द्रह दत्ति, मध्य में एक दत्ति, अन्त में पन्द्रह दत्ति और बाद में उपवास किया जाता है, उसे 'वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा' कहा जाता है। ये दोनों प्रतिमाएं विशिष्ट संहनन वाला एवं पूर्वधर भिक्षु ही धारण कर सकता है। इन प्रतिमाओं में आहार-पानी की दत्तियां सूत्रानुसार क्रमशः घटाते-बढ़ाते हुए ग्रहण की जाती हैं। आहार पानी की दत्तियों की संख्या के साथ-साथ इन प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षु को निम्नलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक होता है (१) शारीरिक ममत्व का त्याग करना अर्थात् नियमित परिमित आहार के अतिरिक्त औषधभेषज के सेवन का और सभी प्रकार के शरीरपरिकर्म का त्याग करना। (२) देव, मनुष्य या तिर्यंच द्वारा किए गए उपसर्गों का प्रतिकार न करना और न उनसे बचने का प्रयत्न करना। (३) किसी के वन्दना या आदर-सत्कार किये जाने पर प्रसन्न न होना, अपितु समभाव में लीन रहना। . (४) जिस मार्ग में या जिस घर के बाहर पशु या पक्षी हों तो पशुओं के चारा चर लेने के बाद और पक्षियों के चुग्गा चुग लेने के बाद पडिमाधारी को आहार लेने के लिए घर में प्रवेश करना। __ (५) पडिमाधारी के आने की सूचना या जानकारी न हो या उनकी कोई प्रतीक्षा करता न हो, ऐसे अज्ञात घरों से आहार ग्रहण करना। (६) उंछ-विगयरहित रूक्ष आहार ग्रहण करना। (७) शुद्धोपहत-लेप रहित आहारादि ग्रहण करना। (८) अन्य भिक्षु श्रमणादि जहां पर खड़े हों, वहां भिक्षा के लिये न जाना। (९) एक व्यक्ति का आहार हो उसमें से लेना, अधिक व्यक्तियों के आहार में से नहीं लेना। (१०) किसी भी गर्भवती स्त्री से भिक्षा न लेना। (११) जो छोटे बच्चे को लिए हुए हो, उससे भिक्षा न लेना। (१२) जो स्त्री बच्चे को दूध पिला रही हो, उससे भिक्षा न लेना। (१३) घर की देहली के अतिरिक्त अन्य कहीं पर भी खड़े हुए से भिक्षा नहीं लेना। (१४) देहली के भी एक पांव अन्दर और एक पांव बाहर रख कर बैठे हुए या खड़े हुए दाता से भिक्षा ग्रहण करना। एषणा के ४२ दोष एवं अन्य आगमोक्त विधियों का पालन करना तो इन प्रतिमाधारी के लिए

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