Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सातवां उद्देशक]
[३९५ ___ इन ग्रन्थों से भी दशवैकालिक सूत्र की चूर्णि प्राचीन है। उनके रचनाकार श्री अगस्त्यसिंहसूरि ने चूलिका की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा है कि 'अब आगे सूत्रकार श्री शय्यंभवाचार्य इस प्रकार कहते हैं।'
___चूर्णिकार श्री अगस्त्ससिंहसूरि ने दोनों चूलिकाओं की पूर्ण व्याख्या की है और उसमें शय्यंभवाचार्य द्वारा रचित होना ही सूचित किया है। लेकिन महाविदेह से लाई जाने की बात का कोई कथन उन्होंने नहीं किया। प्रमाण के लिए देखें चूलिका. २ गा. १४-१५ की चूर्णि पृ. २६५ । अतः यह किंवदन्ती चूर्णिकार के बाद किसी ने किसी कारण से प्रचारित की है, जो बाद के ग्रन्थों में लिख दी गई है। अतः इन दोनों चूलिकाओं को किसी के द्वारा सम्बद्ध मानकर संध्यासमय में या अस्वाध्यायकाल में इनका स्वाध्याय करना सर्वथा अनुचित है। ऐसा करने से निशीथ उ. १९ के अनुसार प्रायश्चित्त भी आता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्वाध्याय करने का विधि-निषेध
१५. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करेत्तए। १६. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सज्झाइए सज्झायं करेत्तए। १५. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है। १६. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करना कल्पता है।
विवेचन-काल सम्बन्धी अस्वाध्याय १२, औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय १० और आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय १०, इस प्रकार कुल ३२ अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का प्रस्तुत सूत्र में निषेध किया गया है और पूर्व सूत्र में कालिक सूत्रों का उत्काल (दूसरे तीसरे प्रहर) के समय स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अस्वाध्याय सम्बन्धी विस्तृत विवेचन के लिए निशीथ उद्दे. १९ का अध्ययन करना चाहिए। दूसरे सूत्र में यह विधान किया गया है कि यदि किसी प्रकार का अस्वाध्याय न हो तो साधुसाध्वियों को स्वाध्याय करना चाहिए।
ज्ञान के अतिचारों के वर्णन से एवं निशीथ उद्दे. १९ सूत्र १३ के प्रायश्चित्त विधान से तथा श्रमणसूत्र के तीसरे पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाध्याय के समय निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए।
इस स्वाध्यायविधान की पूर्ति के लिए किसी परम्परा में प्रतिक्रमण के साथ दशवैकालिक की सत्तरह गाथाओं का स्वाध्याय कर लिया जाता है, यह परम्परा अनुचित है। क्योंकि प्रतिक्रमण का समय तो अस्वाध्याय का होता है, अतः उसके साथ स्वाध्याय करना आगमविरुद्ध भी है तथा आचारांग निशीथसूत्र आदि अनेक कण्ठस्थ किए हुए कालिकआगमों का स्वाध्याय करना भी आवश्यक होता है।