Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सातवां उद्देशक]
[३८९ सा य पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पड़ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। सा य नो पडितप्पेज्जा एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए।
३. जो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां सांभोगिक हैं, उनमें निर्ग्रन्थ को परोक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है, किन्तु प्रत्यक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है।
जब एक दूसरे से मिलें तब इस प्रकार कहे कि-'हे आर्य! मैं अमुक कारण से तुम्हारे साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके तुम्हें विसम्भोगी करता हूँ।'
इस प्रकार कहने पर वह यदि पश्चात्ताप करे तो प्रत्यक्ष में भी उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है। यदि वह पश्चात्ताप न करे तो प्रत्यक्ष में उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है।
४. जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियां साम्भोगिक हैं, उनमें निर्ग्रन्थी को प्रत्यक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है।
किन्तु परोक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसंभोगी करना कल्पता है।
जब वे अपने आचार्य या उपाध्याय की सेवा में पहुंचे तब उन्हें इस प्रकार कहे कि-'हे भंते! मैं अमुक आर्या के साथ अमुक कारण से परोक्ष रूप में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना चाहती हूँ।'
तब वह निर्ग्रन्थी यदि (आचार्य-उपाध्याय के समीप अपने सेवितदोष का) पश्चात्ताप करे तो उसके साथ परोक्ष में भी साम्भोगिक व्यवहार बन्द करना व उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है। यदि वह पश्चात्ताप न करे तो परोक्ष में उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है।
विवेचन-इन दो सूत्रों में साम्भोगिक व्यवहार के विच्छेद करने की विधि बताई गई है। भिक्षु को यदि भिक्षु के साथ व्यवहार बन्द करना हो तो उसके समक्ष दोषों का स्पष्ट कथन करते हुए वे व्यवहार बन्द करने को कह सकते हैं। सूत्र में प्रयुक्त 'भिक्षु' शब्द से यहां 'आचार्य' समझना चाहिए। क्योंकि आचार्य ही गच्छ के अनुशास्ता होते हैं। उन्हें जानकारी दिए बिना किसी भी साधु को अन्य साधु के साथ व्यवहार बन्द करना उचित नहीं है।
साध्वियों को साधु के समक्ष अर्थात् आचार्यादि के समक्ष निवेदन करना आवश्यक होता है, किन्तु आचार्यादि साधु-साध्वियों की सलाह लिये बिना ही किसी भी साधु-साध्वी को असाम्भोगिक कर सकते हैं।
भिक्षु विसंभोग किए जाने वाले साधुओं के समक्ष आचार्यादि को कहें और साध्वियां विसंभोग की जाने वाली साध्वियों की अनुपस्थिति में आचार्यादि से कहें। तब वे उनसे पूछ-ताछ करें, यह दोनों सूत्रों में आये प्रत्यक्ष और परोक्ष-विसंभोग का तात्पर्य है।