Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीसरा उद्देशक]
[३२७ इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्थानांग अ. ३ में कहे गये भिक्षु के दूसरे मनोरथ के अनुसार अथवा अन्य किसी प्रतिज्ञा को धारण करने वाला भिक्षु और दशवै. चू. २, गा. १०; उत्तरा. अ. ३२, गा. ५; आचा. श्रु. १, अ. ६, उ. २; सूय. श्रु. १, अ. १० गा. ११ में कहे गये सपरिस्थितिक प्रशस्त एकलविहार के अनुसार अकेला विचरण करने वाला भिक्षु भी यदि नव डहर या तरुण है तो उसका वह विहार आगमविरुद्ध है। अतः उपर्युक्त आगमसम्मत एकलविहार भी प्रौढ एवं स्थविर भिक्षु ही कर सकते हैं जो नवदीक्षित न हों।
___ तात्पर्य यह है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय और चालीस वर्ष की उम्र के पहले किसी भी प्रकार का एकलविहार या गच्छत्याग करना उचित नहीं है और वह आगमविपरीत है।
बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर होने से २९ वर्ष की वय में वह आचार्य की आज्ञा लेकर एकलविहार साधनाएँ कर सकता है। किन्तु सपरिस्थितिक एकल विहार या गच्छत्याग नहीं कर सकता।
ऐसे स्पष्ट विधान वाले सूत्र एवं अर्थ के उपलब्ध होते हुए भी समाज में निम्न प्रवृतियां या परम्पराएं चलती हैं, वे उचित नहीं कही जा सकतीं। यथा
(१) केवल आचार्य पद से गच्छ चलाना और उपाध्याय पद नियुक्त न करना। (२) कोई भी पद नियुक्त न करने के आग्रह से विशाल गच्छ को अव्यवस्थित चलाते रहना। (३) उक्त वय के पूर्व ही गच्छत्याग करना। ऐसा करने में स्पष्ट रूप से उक्त आगमविधान की स्वमति से उपेक्षा करना है। इस उपेक्षा से होने वाली हानियां इस प्रकार हैं
१. गच्छगत साधुओं के विनय, अध्ययन, आचार एवं संयमसमाधि की अव्यवस्था आदि अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है।
२. साधुओं में स्वच्छन्दता एवं आचार-विचार की भिन्नता हो जाने से क्रमशः गच्छ का विकास न होकर अध:पतन होता है।
३. साधुओं में प्रेम एवं संयमसमाधि नष्ट होती है और क्लेशों की वृद्धि होती है। ४. अन्ततः गच्छ भी छिन्न-भिन्न होता रहता है। अतः प्रत्येक गच्छ में आचार्य उपाध्याय दोनों पदों पर किसी को नियुक्त करना आवश्यक है।
यदि कोई आचार्य उपाध्याय पदों को लेना या गच्छ में ये पद नियुक्त करना अभिमानसूचक एवं क्लेशवृद्धि कराने वाला मानकर सदा के लिये पदरहित गच्छ रखने का आग्रह रखते हैं और ऐसा करते हुए अपने को निरभिमान होना व्यक्त करते हैं, तो उनका ऐसा मानना एवं करना सर्वथा अनुचित है और जिनाज्ञा की अवहेलना एवं आसातना करना भी है। क्योंकि जिनाज्ञा आचार्य उपाध्याय नियुक्त करने की है तथा नमस्कारमंत्र में भी ये दो स्वतन्त्र पद कहे गये हैं। अतः उपर्युक्त आग्रह में सूत्रविधानों से भी अपनी समझ को सर्वोपरि मानने का अहं सिद्ध होता है। यदि आचार्य उपाध्याय पद के अभाव