Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्यवहारसूत्र
गया है और यहां केवल आचार्य आदि पदवियां देने, न देने के रूप में प्रायश्चित्त कहे गये हैं। अर्थात् मैथुनसेवी को निशीथसूत्रोक्त गुरुचौमासी प्रायश्चित्त तो आता ही है साथ ही वह तीन वर्ष या उससे अधिक वर्ष अथवा जीवनभर आचार्यादि पद के अयोग्य हो जाता है, यह इन सूत्रों में कहा गया है। जो भिक्षु संयमवेश में रहते हुए स्त्री के साथ एक बार या अनेक बार मैथुनसेवन कर लेता है तो वह आचार्य आदि पदों के योग्य गुणों से सम्पन्न होते हुए भी कम से कम तीन वर्ष तक पद धारण करने के अयोग्य हो जाता है।
अतः उसे पद देने का एवं धारण करने का निषेध किया गया है। जिससे वह भिक्षु तीन वर्ष तक प्रमुख बन कर विचरण भी नहीं कर सकता है, क्योंकि सूत्र में 'गणधर ' बनने का निषेध किया है। 'गणधर' शब्द का विशेषार्थ इसी उद्देशक के प्रथम सूत्र में देखें ।
जो भिक्षु मैथुनसेवन के बाद या प्रायश्चित्त से शुद्धि कर लेने के बाद सर्वथा मैथुनभाव से निवृत्त हो जाता है और तीन वर्ष पर्यन्त वह निष्कलंक जीवन व्यतीत करता है, उस भिक्षु की अपेक्षा से यह जघन्य मर्यादा है ।
यदि उस अवधि में भी पुनः ब्रह्मचर्य महाव्रत के अतिचार या अनाचारों का सेवन करता है, अथवा दिये गये प्रायश्चित्त से विपरीत आचरण करता है, तो यह तीन वर्ष की मर्यादा आगे बढ़ा दी जाती है और ऐसा करने से कभी जीवनपर्यन्त भी वह पद प्राप्ति के अयोग्य रह जाता है।
आचार्य, उपाध्याय या गणावच्छेदक आदि गच्छ में एवं समाज में अत्यधिक प्रतिष्ठित होते हैं तथा ये अन्य साधु-साध्वियों के लिए आदर्श रूप होते हैं। पद पर प्रतिष्ठित होने से इन पर जिनशासन का विशेष दायित्व होता है। उपलक्षण से इन तीन के अतिरिक्त प्रवर्तक, प्रवर्तिनी आदि पदों के लिए भी समझ लेना चाहिए ।
इन पदवीधरों के द्वारा पद पर रहते हुए मैथुनसेवन करना अक्षम्य अपराध है । अतः बिना किसी विकल्प के जीवन भर वे किसी भी पद को धारण नहीं कर सकते। उन्हें सदा अन्य के अधीन रहकर ही विचरण करते हुए संयम पालन करना पड़ता है।
यदि कोई पदवीधर यह जान ले कि 'मैं ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ हूं' और तब वह अपना असामर्थ्य प्रकट करके या सामान्य रूप में अपनी संयमपालन की अक्षमता प्रकट करके पदत्याग कर देता है और योग्य अन्य भिक्षु को पद पर नियुक्त कर देता है, उसके बाद मैथुनसेवन करता है तो उसे उक्त जीवन पर्यन्त का प्रायश्चित्त नहीं आता है किन्तु तीन वर्ष तक पदमुक्त रहने का ही प्रायश्चित्त आता है।
सामान्य भिक्षु के मैथुनसेवन की वार्ता से भी लोकापवाद एवं जिनशासन की अवहेलना होती है और उस भिक्षु की प्रतिष्ठा भी नहीं रहती है । तथापि आचार्य आदि पदवीधर द्वारा मैथुनसेवन की वार्ता से तो जिनशासन की अत्यधिक अवहेलना होती है एवं उस पदवीधर को भी अत्यधिक लज्जित होना पड़ता है।