Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्यवहारसूत्र यह कथन यहां कर्तव्य एवं अधिकार की अपेक्षा से किया गया है। किन्तु सेवा की आवश्यकता होने पर तो रत्नाधिक को भी शैक्ष की यथायोग्य सेवा करना या करवाना आवश्यक होता है। न करने पर वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अतः सूत्रोक्त विधान सामान्य स्थिति की अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिये। रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान
२६. दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
२७. दो गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
२८. दो आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
२९. बहवे भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पड़ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपग्जित्ताणं विहरित्तए।
३०. बहवे गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
३१. बहवे आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
३२. बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया, बहवे आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
२६. दो भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है।
२७. दो गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है।
___२८. दो आचार्य या दो उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है।
२९. बहुत से भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है।