Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्यवहारसूत्र ३. अन्य मत से भावित कोई भी व्यक्ति प्रश्न-चर्चा करने के लिए आ जाय तो यथायोग्य उत्तर देने में समर्थ हो, ऐसा भिक्षु गणप्रमुख के रूप में अर्थात् संघाटकप्रमुख होकर विचरण कर सकता है।
धर्मप्रभावना को लक्ष्य में रखकर विचरण करने वाले प्रमुख भिक्षु में ये भाष्योक्त गुण होने आवश्यक हैं किन्तु अभिग्रह प्रतिमाएं एवं मौन साधना आदि, केवल आमकल्याण के लक्ष्य से विचरण करने वाले को सूत्रोक्त श्रुतसम्पन्न रूप पलिच्छन्न होना ही पर्याप्त है। भाष्योक्त गुण न हों तो भी वह प्रमुख होकर विचरण करता हुआ आत्मसंयम-साधना कर सकता है।
द्वितीय सूत्र के अनुसार कोई भी श्रुतसम्पन्न योग्य भिक्षु स्वेच्छा से गुणप्रमुख के रूप में विचरण करने के लिए नहीं जा सकता है, किन्तु गच्छ के स्थविर भगवंत की अनुमति लेकर के ही गण धारण कर सकता है अर्थात् स्थविर भगवन्त से कहे कि-'हे भगवन् ! मैं कुछ भिक्षुओं को लेकर विचरण करना चाहता हूँ।' तब स्थविर भगवन्त उसकी योग्यता जानकर एवं उचित अवसर देखकर स्वीकृति देवें तो गण धारण कर सकता है। यदि वे स्थविर किसी कारण से स्वीकृति न दें तो उसे गण धारण नहीं करना चाहिए एवं योग्य अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
सूत्र में स्थविर भगवन्त से आज्ञा प्राप्त करने का जो विधान किया गया है उसके सन्दर्भ में यह समझना चाहिए कि यहां स्थविर शब्द से आचार्य उपाध्याय प्रवर्तक आदि सभी आज्ञा देने वाले अधिकारी सूचित किये गये हैं। क्योंकि स्थविर शब्द अत्यन्त विशाल है। इसमें सभी पदवीधर और अधिकारीगण भिक्षुओं का समावेश हो जाता है। आगमों में गणधर गौतम सुधर्मास्वामी के लिए एवं तीर्थंकरों के लिए भी 'थेरे-स्थविर' शब्द का प्रयोग है। अतः इस विधान का आशय यह है कि गण धारण के लिए गच्छ के किसी भी अधिकारी भिक्षु की आज्ञा लेना आवश्यक है एवं स्वयं का श्रुतसंपदा आदि से सम्पन्न होना भी आवश्यक है।
___ यदि कोई भिक्षु उत्कट इच्छा के कारण आज्ञा लिये बिना या स्वीकृति मिले बिना भी अपने शिष्यों को या अन्य अपनी निश्रा में अध्ययन आदि के लिए रहे हुए साधुओं को लेकर विचरण करता है तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
उसके साथ शिष्य रूप रहने वाले या अध्ययन आदि किसी भी कारण से उसकी निश्रा में रहने वाले साधु उसकी आज्ञा का पालन करते हुए उसके साथ रहते हैं, वे प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। यह भी द्वितीय सूत्र में स्पष्ट किया गया है।
__ आज्ञा के बिना गण धारण करने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान करते हुए सूत्र में कहा गया है कि से संतरा छेए वा परिहारे वा', इसका अर्थ करते हुए व्याख्याकार ने यह स्पष्ट किया है कि वह भिक्षु अपने उस अपराध के कारण यथायोग्य छेद (पांच दिन आदि) प्रायश्चित्त को अथवा मासिक आदि परिहारतप या सामान्य तप रूप प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है। अर्थात् आलोचना करने पर या आलोचना न करने पर भी अनुशासन-व्यवस्था हेतु उसे यह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त दिया जाता है।
सूत्र में भिक्षु के लिए यह विधान किया गया है। इसी प्रकार साध्वी के लिए भी संपूर्ण विधान समझ लेना चाहिए। उसे विचरण करने के लिए स्थविर या प्रवर्तिनी की आज्ञा लेनी चाहिए।