Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीसरा उद्देशक]
[३१३ उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन कराने का है, जिसमें शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था की देख-रेख उन्हें रखनी पड़ती है। अत: इस पद के लिए जघन्य तीन वर्ष की दीक्षापर्याय होना आवश्यकं कहा है।
आचार्य पर गच्छ की संपूर्ण व्यवस्थाओं का उत्तरदायित्व रहता है। वे अर्थ-परमार्थ की वाचना भी देते हैं। अतः अधिक अनुभव क्षमता की दृष्टि से उनके लिए न्यूनतम पांच वर्ष की दीक्षापर्याय होना आवश्यक कहा है।
गणावच्छेदक गण संबंधी अनेक कर्तव्यों को पूर्ण करके उनकी चिन्ता से आचार्य को मुक्त रखता है अर्थात् गच्छ के साधुओं की सेवा, विचरण एवं प्रायश्चित्त आदि व्यवस्थाओं का उत्तरदायित्व गणावच्छेदक का होता है। यद्यपि अनुशासन का पूर्ण उत्तरदायित्व आचार्य का होता है तथापि व्यवस्था तथा कार्यसंचालन का उत्तरदायित्व गणावच्छेदक का अधिक होने से इनकी दीक्षापर्याय कम से कम आठ वर्ष की होना आवश्यक कहा है।
___अन्यगुण-आचार-कुशलता आदि दस गुणों का कथन इन सूत्रों में है। उनकी व्याख्या भाष्य में इस प्रकार है
१. आचारकुशल-ज्ञानाचार में एवं विनयाचार में जो कुशल होता है वह आचारकुशल कहा जाता है। यथा-गुरु आदि के आने पर खड़ा होता है, उन्हें आसन चौकी आदि प्रदान करता है, प्रातःकाल उन्हें वन्दन करके आदेश मांगता है, द्रव्य से अथवा भाव से उनके निकट रहता है, शिष्यों को एवं प्रतीच्छकों (अन्य गच्छ से अध्ययन के लिए आये हुओं) को गुरु के प्रति श्रद्धान्वित करने वाला कायिकी आदि चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति को यथाविधि करने वाला, आवश्यक वस्त्रादि प्राप्त करने वाला, गुरु आदि की यथायोग्य पूजा, भक्ति, आदर-सत्कार करके उन्हें प्रसन्न रखने वाला, परुष वचन नहीं बोलने वाला, अमायावी-सरल स्वभावी, हाथ-पांव-मुख आदि की विकृत चेष्टा से रहित स्थिर स्वभाव वाला, दूसरों के साथ मायावी आचरण अर्थात् धोखा न करने वाला, यथासमय प्रतिलेखन प्रतिक्रमण एवं स्वाध्याय करने वाला, यथोचित तप करने वाला, ज्ञानादि की वृद्धि एवं शुद्धि करने वाला, समाधिवान् और सदैव गुरु का बहुमान करने वाला, ऐसा गुणनिधि भिक्षु 'आचारकुशल' कहलाता है।
२. संयमकुशल-(१) पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की सम्यक् प्रकार से यतना करने वाला, आवश्यक होने पर ही निर्जीव पदार्थों का विवेकपूर्वक उपयोग करने वाला, गमनागमन आदि की प्रत्येक प्रवृत्ति अच्छी तरह देखकर करने वाला, असंयम प्रवृत्ति करने वालों के प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ भाव रखने वाला, यथासमय यथाविधि प्रमार्जन करने वाला, परिष्ठापना समिति के नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, मन वचन काया की अशुभ प्रवृत्ति को त्यागने वाला, इन सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करने में निपुण (दक्ष),
(२) अथवा कोई वस्तु रखने या उठाने में तथा एषणा, शय्या, आसन, उपधि, आहार आदि में यथाशक्ति प्रशस्त योग रखने वाला, अप्रशस्त योगों का परित्याग करने वाला,
___ (३) इन्द्रियों एवं कषायों का निग्रह करने वाला अर्थात् शुभाशुभ पदार्थों में रागद्वेष नहीं करने