Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्यवहारसूत्र ५. पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो तथा अक्षत चारित्र वाला, अभिन्न चारित्र वाला, अशबल चारित्र वाला और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञ हो एवं कम से कम दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र को धारण करने वाला हो तो उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है।
६. वही पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट आचार वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प आगमज्ञ हो तो उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं कल्पता है।
७. आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो तथा अक्षत चारित्र वाला, अभिन्न चारित्र वाला, अशबल चारित्र और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञ हो एवं कम से कम स्थानांग-समवायांग सूत्र को धारण करने वाला हो तो उसे आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देना कल्पता है।
८. वही आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट आचार वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प आगमज्ञ हो तो उसे आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देना नहीं कल्पता है।
विवेचन-जिस गच्छ में अनेक साधु-साध्वियां हैं। जिसके अनेक संघाटक, (संघाड़े) अलग-अलग विचरते हों अथवा जिस गच्छ में नवदीक्षित, बाल या तरुण साधु-साध्वियां हों, उसमें अनेक पदवीधरों का होना अत्यावश्यक है एवं कम से कम आचार्य, उपाध्याय इन दो पदवीधरों का होना तो नितांत आवश्यक है।
किन्तु जिस गच्छ में २-४ साधु या २-४ साध्वियां ही हों, जिनके एक या दो संघाटक ही अलग-अलग विचरते हों एवं उनमें कोई भी नवदीक्षित बाल या तरुण वय वाला न हो तो पदवीधर के बिना ही केवल वय या पर्याय स्थविर से उनकी व्यवस्था हो सकती है।
यहां प्रथम सूत्रद्विक में उपाध्याय पद, द्वितीय सूत्रद्विक में आचार्य-उपाध्याय पद और तृतीय सूत्रद्विक में अन्य पदों के योग्यायोग्य का कथन दीक्षापर्याय, श्रुत-अध्ययन एवं अनेक गुणों के द्वारा किया गया है। जिसमें दीक्षापर्याय और श्रुत-अध्ययन की जघन्य मर्यादा तो उपाध्याय से आचार्य की और उनसे गणावच्छेदक की अधिक अधिकतर कही है।
___ इसके सिवाय मध्यम या उत्कृष्ट कोई भी दीक्षापर्याय एवं श्रुत-अध्ययन वाले को भी ये पद दिये जा सकते हैं। आचारकुशल आदि अन्य गुणों का सभी पदवीधरों के लिए समान रूप से निरूपण किया गया है। अतः प्रत्येक पद-योग्य भिक्षु में वे गुण होने आवश्यक हैं।
दीक्षापर्याय-भाष्यकार ने बताया है कि दीक्षापर्याय के अनुसार अनुभव, क्षमता, योग्यता का विकास होता है, जिससे भिक्षु उन-उन पदों के उत्तरदायित्व को निभाने में सक्षम होता है।