Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२७२]
[व्यवहारसूत्र अकेले विचरने वाले का गण में पुनरागमन
२३. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से यइच्छेज्जा दोच्चं पितमेवगणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेजा, पुणो छेय-परिहारस्स उवट्ठाएज्जा।
२४.गणावच्छेइए य गणाओअवक्कम्म एगल्लविहारपडिमंउवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेय-परिहारस्स उवट्ठाएज्जा।
२५. आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेय-परिहारस्स उवट्ठाएज्जा।
२३. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर एकलविहारचर्या धारण करके विचरण करे, बाद में वह पुनः उसीगण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे।
२४. यदि कोई गणावच्छेदक गण से निकलकर एकलविहारचर्या को धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुनः उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे।
२५. यदि कोई आचार्य या उपाध्याय गण से निकलकर एकलविहारचर्या को धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुनः उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे।
विवेचन-इन सूत्रों में गण से निकलकर एकाकी विहारचर्या करने वाले भिक्षु, आचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक का कथन है।
__ ये एकलविहारी भिक्षु यदि एकाकी विहारचर्या छोड़कर पुनः गण में सम्मिलित होना चाहें तो उनको गण में सम्मिलित किया जा सकता है, किन्तु उनको एकाकी विहारचर्या में लगे दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है और गच्छप्रमुख उनके एकाकी विचरण का प्रायश्चित्त तप या दीक्षाछेद जो भी दे उसे स्वीकार करना भी आवश्यक होता है।
इन सूत्रों के विधानानुसार भिक्षु, आचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक प्रतिमाधारी नहीं हैं, यह स्पष्ट है। फिर भी सूत्रों में जो 'प्रतिमा' शब्द का प्रयोग किया गया है वह केवल सूत्र-शैली है। क्योंकि आगे के सूत्रों में पार्श्वस्थ आदि के लिए एवं अन्य मत के लिंग को धारण करने वाले के लिये भी प्रतिमा' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिनके प्रतिमाधारी होने की कल्पना करना सर्वथा अनुचित होगा।