Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक]
[२८३ (४) यदि अन्य साम्भोगिक साधर्मिक बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर सारूप्य साधु मिले, जो बहुश्रुत हो और बहुआगमज्ञ हो, वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।
(५) यदि सारूप्य बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर पश्चात्कृत (संयमत्यागी) श्रमणोपासक मिले, जो बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ हो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।
(६) यदि पश्चात्कृत बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ श्रमणोपासक न मिले तो जहां पर सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष (समभावी-स्व-पर-विवेकी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति) मिले तो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।
(७) यदि सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष न मिले तो ग्राम यावत् राजधानी के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो, करतल जोड़कर मस्तक के आवर्तन करे और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले
___ 'इतने मेरे दोष हैं और इतनी बार मैंने इन दोषों का सेवन किया है,' इस प्रकार बोलकर अरिहन्तों और सिद्धों के समक्ष आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।
विवेचन-संयमसाधना करते हुए परिस्थितिवश या प्रमादवश कभी श्रमण-धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले अकृत्यस्थान का आचरण हो जाय तो शीघ्र ही अप्रमत्तभाव से आलोचना करना संयम जीवन का आवश्यक अंग है। यह आभ्यन्तर तपरूप प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है।
___ उत्तरा. अ. २९ में आलोचना करने का फल बताते हुए कहा है कि आलोचक अपनी आलोचना करके आत्मशल्यों को, मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले दोषों को और अनन्त संसार की वृद्धि कराने वाले कर्मों को आत्मा से अलग कर देता है अर्थात् उन्हें नष्ट कर देता है।
आलोचना करने वाला एवं आलोचना सुनने वाला ये दोनों ही आगमोक्त गुणों से सम्पन्न होने चाहिए। ऐसा करने पर ही इच्छित आराधना सफल होती है।
निशीथ उ. २० में आलोचना से सम्बन्धित आगमोक्त अनेक विषयों की जानकारी स्थलनिर्देश सहित दी गई है, पाठक वहीं देखें।
प्रस्तुत सूत्र में आलोचना किसके समक्ष करनी चाहिये, इसका एक क्रम दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जहां तक सम्भव हो इसी क्रम से आलोचना करनी चाहिए। व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में पृ. १२६ (एक सौ छब्बीस) पर गुरुचौमासी एवं लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। इसलिए आलोचना करने के इच्छुक भिक्षु को सर्वप्रथम अपने आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि किसी कारण से आचार्य उपाध्याय का योग सम्भव न हो अर्थात् वे रुग्ण हों या दूर हों एवं स्वयं का आयु अल्प हो तो सम्मिलित आहार-व्यवहार वाले साम्भोगिक साधु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए, किन्तु वह सामान्य भिक्षु भी आलोचना सुनने के गुणों से सुसम्पन्न एवं बहुश्रुत (छेदसूत्रों में पारंगत) तथा बहुआगमज्ञ (अनेक सूत्रों एवं अर्थ का अध्येता) होना चाहिए।