Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दूसरा उद्देशक]
[२८९ ५. परिहारतप रूप प्रायश्चित्त वहन करने वाला भिक्षु यदि रुग्ण होने पर किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो
यदि वह परिहारतप करने में समर्थ हो तो आचार्यादि उसे परिहारतप रूप प्रायश्चित्त दें और उसकी आवश्यक सेवा करावें।
यदि वह समर्थ न हो तो आचार्यादि उसकी वैयावृत्य के लिए अनुपारिहारिक भिक्षु को नियुक्त करें।
यदि वह पारिहारिक भिक्षु सबल होते हुए भी अनुपारिहारिक भिक्षु से वैयावृत्य करावे तो उसका प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रायश्चित्त के साथ आरोपित करें।
विवेचन-पूर्व उद्देशक में एवं बृहत्कल्प उ. ४ में आचार्यादि के नेतृत्व में परिहारतप वहन करने की विधि का वर्णन किया गया है। इन सूत्रों में दो या दो से अधिक विचरण करने वाले साधर्मिक भिक्षुओं के स्वतः परिहारतप वहन करने का विधान है।
विचरण करने वाले दो साधर्मिक भिक्षु यदि गीतार्थ हैं और आचार्य आदि से दूर किसी क्षेत्र में विचरण कर रहे हैं अथवा किसी आचार्यादि के नेतृत्व विना विचरण कर रहे हैं। उनमें से किसी एक साधु को किसी दोष की शुद्धि के लिए परिहारतप वहन करना हो तो दूसरा गीतार्थ भिक्षु उसका अनुपरिहारिक एवं कल्पाक (प्रमुखता करने वाला) बनता है।
यदि दोनों ने एक साथ दोष सेवन किया है और दोनों को शुद्धि के लिए परिहारतप वहन करना है तो एक भिक्षु के तप पूर्ण करने के बाद दूसरा भिक्षु तप वहन कर सकता है। अर्थात् दोनों एक साथ परिहारतप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि एक को कल्पाक या अनुपरिहारिक रहना आवश्यक होता है।
अनेक साधर्मिक भिक्षु विचरण कर रहे हों तो उनमें से एक या अनेक के परिहारतप वहन करने के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए, अर्थात् एक को कल्पाक रख कर शेष सभी साधु परिहारतप वहन कर सकते हैं।
पांचवें सूत्र में यह विशेष कथन है कि यदि पारिहारिक भिक्षु कुछ रुग्ण है एवं उसने कोई दोष का सेवन किया है तो उस दोष संबंधी प्रायश्चित्त की आरोपणा भी पूर्व तप में कर देनी चाहिए। यदि उसके तप वहन करने की शक्ति न हो तो वह तप करना छोड़ दे और पुनः सशक्त होने के बाद उस प्रायश्चित्त को वहन करके पूर्ण कर ले।
यदि वह पारिहारिक भिक्षु सामान्य रुग्ण हो और किसी अनुपरिहारिक द्वारा सेवा करने पर तप वहन कर सकता हो तो पूर्वतप के साथ ही पुनः प्राप्त प्रायश्चित्त आरोपित कर देना चाहिए और यथायोग्य सेवा करवानी चाहिए। उसके बीच में यदि रुग्ण भिक्षु स्वस्थ या सशक्त हो जाय तो उसे सेवा नहीं करवानी चाहिए। स्वस्थ एवं सशक्त होने के बाद भी यदि वह सेवा करवाता है तो उसका भी उसे प्रायश्चित्त आता है, क्योंकि परिहारतप वाला भिक्षु उत्सर्गविधि से किसी का सहयोग एवं सेवा आदि नहीं ले सकता।