Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दूसरा उद्देशक ]
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ग्लान-भिक्षु की वैयावृत्य (सेवा) की समुचित व्यवस्था होती हो तो गच्छ की एवं जिनशासन की प्रतिष्ठा बढ़ती है एवं धर्म की प्रभावना होती है। किंतु समुचित व्यवस्था के अभाव में, रुग्ण भिक्षु की सेवा करने कराने में उपेक्षा वृत्ति होने पर, खिन्न होकर सेवा छोड़ देने पर, गच्छ से निकाल देने पर अथवा अन्य पारिवारिक जनों को सौंप देने पर गच्छ की एवं जिनशासन की अवहेलना या निंदा होती है। अतः इन सूत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि इन अवस्थाओं वाले भिक्षुओं की भी रुग्ण-अवस्था में उपेक्षा न करके अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। यदि ये रुग्ण न हों तो आवश्यक हो जाने पर गच्छ से निकाला जा सकता है। सूत्रोक्त बारह अवस्थाएं इस प्रकार हैं
१. परिहारतप वहन करने वाला ।
२. नवमा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वहन करने वाला ।
३. दसवां पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला ।
४. अत्यंत शोक या भय से विक्षिप्तचित्त वाला - उन्मत ।
५. हर्षातिरेक से भ्रमितचित्त वाला - उन्मत ।
६. यक्षावेश (भूत-प्रेत आदि की पीडा) से पीडित ।
७. मोहोदय से उन्मत्त - पागल ।
८. किसी देव, पशु या राजा आदि के उपसर्ग से पीडित ।
९. तीव्र कषाय- कलह से पीडित ।
१०. किसी बड़े दोष के सेवन से प्रायश्चित्तप्राप्त ।
११. आजीवन अनशन स्वीकार किया हुआ ।
१२. शिष्यप्राप्ति, पदलिप्सा आदि किसी इच्छा से व्याकुल बना हुआ ।
भाष्यकार ने इस सूत्रों में प्रयुक्त 'निज्जूहित्तए' शब्द से गच्छ से निकालने का अर्थ न करके केवल उसकी सेवा में उपेक्षा नहीं करने का ही अर्थ किया है तथा 'अट्ठजायं' शब्द से 'संकटग्रस्त पारिवारिकजनों के लिए धनप्राप्ति की आकांक्षा वाला भिक्षु' ऐसा अर्थ करते हुए विस्तृत व्याख्या की है।
उपर्युक्त ग्यारह अवस्थाओं के साथ एवं सूत्रोक्त विधान में ' अर्थ - जात' शब्द का 'इच्छाओं से व्याकुल भिक्षु' ऐसा अर्थ करना प्रसंगसंगत प्रतीत होता है।
'अहालहुसए नामं ववहारे पट्ठवियव्वे सिया' इस सूत्रांश की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने यथा-लघु एवं यथा-गुरु के अनेक भेद-प्रभेद किये हैं तथा उनका समय एवं उसमें किये जाने वाले तप का निर्देश किया है।
सूत्रोक्त 'ववहार' शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि व्यवहार, आलोचना, विशुद्धि और प्रायश्चित्त, ये एकार्थक शब्द हैं। प्रथम उद्देशक के प्रारम्भिक सूत्रों में 'परिहार' शब्द भी प्रायश्चित्त अर्थ का द्योतक है। यथा
'भिक्खु य मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा' अर्थात् भिक्षु एक मास के प्रायश्चित्त योग्य दोषस्थान का सेवन करके आलोचना करे ।
निशीथसूत्र के १९ उद्देशकों के अन्तिम सूत्र में भी प्रायश्चित्त अर्थ में 'परिहार' शब्द प्रयुक्त है ।