Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
दूसरा उद्देशक ]
[ २९१
१५. सपायच्छित्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्ठवियव्वे सिया ।
१६. भत्त-पाण-पडियाइक्खियं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्ठवियव्वे सिया ।
१७. अट्ठजायं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स गणावच्छेयइस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्ठवियव्वे सिया ।
६. परिहारतप रूप प्रायश्चित्त वहन करने वाला भिक्षु यदि रोगादि से पीडित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए। बाद में गणावच्छेदक उस पारिहारिक भिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।
७. अनवस्थाप्यभिक्षु (नवमें प्रायश्चित्त को वहन करने वाला साधु) यदि रोगादि से पीडित हो जाय (उस प्रायश्चित्त को वहन न कर सके) तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए। बाद में गणावच्छेदक उस अनवस्थाप्यसाधु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।
८. पारंचित्तभिक्षु (दसवें प्रायश्चित्त को वहन करने वाला साधु) यदि रोगादि से पीडित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए। बाद में गणावच्छेदक उस पारंचितभिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।
९. विक्षिप्तचित्त ग्लान- भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।
१०. दिप्तचित्त ग्लान- भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।
११. यक्षाविष्ट ग्लान- भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। । उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे ।