Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम उद्देशक]
सूत्र २६-३०
[२८७ पार्श्वस्थादि पांचों यदि गच्छ में पुनः आना चाहें और उनके कुछ संयमभाव शेष रहे हों तो तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर उन्हें गच्छ में सम्मिलित कर लेना चाहिए। किसी विशेष परिस्थिति से अन्यलिंग धारण करने वाले भिक्षु को आलोचना के अतिरिक्त कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। कोई संयम छोड़कर गृहस्थवेश स्वीकार कर ले और पुनः गच्छ में आना चाहे तो उसे नई दीक्षा के सिवाय कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। यदि किसी भिक्षु को अकृत्यस्थान की आलोचना करनी हो तो१. अपने आचार्य उपाध्याय के पास करे। २. उनके अभाव में स्वगच्छ के अन्य बहुश्रुत साधु के पास आलोचना करे। ३. उनके अभाव में अन्यगच्छ के बहुश्रुत भिक्षु या आचार्य के पास आलोचना करे। ४. उनके अभाव में केवल वेषधारी बहुश्रुत भिक्षु के पास आलोचना करे। ५. उसके अभाव में दीक्षा छोड़े हुए बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास आलोचना करे। ६. उसके अभाव में सम्यग्दृष्टि या समभावी ज्ञानी के पास आलोचना करे एवं स्वयं
प्रायश्चित्त स्वीकार करे। एवं ७. उसके अभाव में ग्राम के बाहर अरिहंत सिद्ध प्रभु की साक्षी से आलोचना
करके स्वयं प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले।
उपसंहार
सूत्र १-१४
१५-१८
२०-२२ २३-३०
इस उद्देशक मेंप्रायश्चित्त देने का, प्रायश्चित्त वहन कराने का, पारिहारिक के साथ व्यवहार करने का, उसके स्थविर की सेवा में जाने का, एकलविहारी या पार्श्वस्थादि के पुनः गच्छ में आने का, अन्यलिंग धारण करने का, वेश छोड़कर पुनः गण में आने की इच्छा वाले का, आलोचना करने के क्रम, इत्यादि विषयों का उल्लेख किया गया है।
३१
॥प्रथम उद्देशक समाप्त॥