Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्यवहारसूत्र यहां टीकाकार ने 'चेइयाई' शब्द का 'देवता' अर्थ किया है तथा उसे जिनवचनों से भावित अन्तःकरण वाला कहा है।
'चेइय' शब्द के अनेक अर्थ शब्दकोश में बताये गये हैं। उसमें ज्ञानवान्, भिक्षु आदि अर्थ भी 'चेइय' शब्द के लिये हैं। अनेक सूत्रों में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के लिए 'चेइय' शब्द का प्रयोग किया गया है, वहां उस शब्द से भगवान् को 'ज्ञानवान्' कहा है।
उपासकदशा अ. १ में श्रमणोपासक की समकित सम्बन्धी प्रतिज्ञा है। उसमें अन्यतीर्थिक से ग्रहण किये चेत्य अर्थात् साधु को वन्दन-नमस्कार एवं आलाप-संलाप करने का तथा आहार-पानी देने का निषेध है। वहां स्पष्ट रूप से 'चेइय' शब्द का भिक्षु अर्थ में प्रयोग किया गया है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'चेइय' शब्द का अर्थ मूर्तिपूजक समुदाय वाले 'अरिहंत भगवान् की मूर्ति' भी करते हैं, किन्तु वह टीकाकार के अर्थ से विपरीत है तथा पूर्वापर सूत्रों से विरुद्ध भी है। क्योंकि टीकाकार ने यहां अन्तःकरण शब्द का प्रयोग किया है, वह मूर्ति में नहीं हो सकता है। सूत्र में सम्यक् भावित चैत्य का अभाव होने पर अरिहंत सिद्ध की साक्षी के लिए गांव आदि के बाहर जाने का कहा है। यदि अरिहंत चैत्य का अर्थ मन्दिर होता तो मन्दिर में ही अरिहंत सिद्ध की साक्षी से आलोचना करने का कथन होता, गांव के बाहर जाने के अलग विकल्प देने की आवश्यकता ही नहीं होती। अत: 'चेइय' शब्द का प्रस्तुत प्रकरण में 'ज्ञानी या समझदार पुरुष' ऐसा अर्थ करना ही उपयुक्त है।
प्रथम उद्देशक का सारांश सूत्र १-१४ एक मास से लेकर छह मास तक प्रायश्चित्तस्थान का एक बार या अनेक बार सेवन
करके कोई कपटरहित आलोचना करे तो उसे उतने मास का प्रायश्चित्त आता है और कपटयुक्त आलोचना करे तो उसे एक मास अधिक का प्रायश्चित्त आता है और छह मास या उससे अधिक प्रायश्चित्त होने पर भी छह मास का ही प्रायश्चित्त
आता है। १५-१८ प्रायश्चित्त वहन करते हुए पुनः दोष लगाकर दो चौभंगी में से किसी भी भंग से
आलोचना करे तो उसका प्रायश्चित्त देकर आरोपणा कर देनी चाहिये। १९
पारिहारिक एवं अपारिहारिक भिक्षु को एक साथ बैठना, रहना आदि प्रवृत्ति नहीं
करना चाहिए एवं आवश्यक हो तो स्थविरों की आज्ञा लेकर ऐसा कर सकते हैं। २०-२२ पारिहारिक भिक्षु शक्ति हो तो तप वहन करते हुए सेवा में जावे और शक्ति अल्प हो
तो स्थविरभगवन्त से आज्ञा प्राप्त करके तप छोड़कर भी जा सकता है। मार्ग में विचरण की दृष्टि से उसे कहीं जाना या ठहरना नहीं चाहिए। रोग आदि के कारण
ज्यादा भी ठहर सकता है। अन्यथा सब जगह एक रात्रि ही रुक सकता है। २३-२५ एकलविहारी आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक या सामान्य भिक्षु पुनः गच्छ में आने
की इच्छा करे तो उसे तप या छेद प्रायश्चित देकर गच्छ में रख लेना चाहिए।