Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक] अप्रशस्त एकलविहार एवं उसका निषेध करने वाले आगमस्थल
- .१. अत्यन्तक्रोधी-मानी एवं धूर्त का दूषित एकलविहार। -आचा. श्रु. १, अ. ५, उ. १ २. योग्य प्रायश्चित्त स्वीकार न करने से जो गच्छ-निष्कासित हो, उसका एकलविहार।
-बृहत्कल्प. उ. ४ ३. अव्यक्त एवं अशान्त स्वभाव वाले का संकटयुक्त एकलविहार।
-आचा. श्रु. १, अ. ५, उ. ४ ४. संयम-विधि के पालन में अरुचि वाले के लिए एकलविहार का निषेध।
-आचा. श्रु. १, अ. ५, उ. ६ ५. परिपूर्ण पंखरहित पक्षी की उपमा से अव्यक्त भिक्षु के लिए एकलविहार का निषेध।
-सूय. श्रु. १, अ. १४ ६. नवदीक्षित, बालक एवं तरुण भिक्षु को आचार्य की निश्रा बिना रहने का निषेध ।
-व्यव. उ. ३ ७. आचार्य, उपाध्याय पद धारण करने वालों को अकेले विहार करने का निषेध ।
-व्य व. उ.४ नियुक्ति तथा भाष्य में एकलविहार का वर्णन
१. बृहत्कल्पभाष्य गाथा. ६९० से ६९३ तकजघन्यगीतार्थ-आचारांग एवं निशीथसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला। मध्यमगीतार्थ-आचारांग, सुयगडांग एवं चार छेदसूत्रों को कण्ठस्थ करने वाला। उत्कृष्टगीतार्थ-नवपूर्व से १४ पूर्व तक के ज्ञानी आदि।
इनमें से किसी भी प्रकार का गीतार्थ ही आचार्य, उपाध्याय या एकलविहारी हो सकता है। क्योंकि गीतार्थ का एकाकी विहार एवं गीतार्थ आचार्य की निश्रायुक्त गच्छविहार, ये दो विहार ही जिनशासन में अनुज्ञात हैं। तीसरा अगीतार्थ का एकाकी विहार एवं अगीतार्थ की निश्रायुक्त गच्छविहार भी जिनशासन में निषिद्ध है।
निशीथचूर्णि गा. ४०४ में उक्त गीतार्थ की व्याख्या के समान ही जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट बहुश्रुत की भी व्याख्या की गई है।
२. व्यवहारभाष्य उ. १ के अन्तिम सूत्र में
१. रोगातंक २. दुर्भिक्ष ३. राजद्वेष ४. भय ५. शारीरिक या मानसिक ग्लानता ६. ज्ञान दर्शन या चारित्र की वृद्धि हेतु ७. साथी भिक्षु के काल-धर्म प्राप्त होने पर ८. आचार्य या स्थविर की आज्ञा से भेजने पर, इत्यादि कारणों से एकलविहार किया जाता है।
गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणावच्छेदक इन पांच पदवीधरों में से एक भी योग्य पदवीधर के न होने के कारण गच्छ त्याग करने वाले एकलविहारी भिक्षु होते हैं।