Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२७४]
[व्यवहारसूत्र अपरिस्थितिक एकलविहारचर्या सम्बन्धी आगमस्थल
१. भिक्षु की ग्यारह प्रतिमा। -दशा द. ७ २. जिनकल्पसाधना। -बृहत्कल्प उ. ६ ३. जिनकल्पी का सर्प काटने पर भी उपचार कराने का निषेध। -व्यव. उ. ५ ४. एकलविहार का मनोरथ। -ठाणं अ. ३ ५. एकलविहार के आठ गुण। -ठाणं अ.८ ६. अकेले बैठे, खड़ा रहे, सोवे एवं विचरे। -सूय. श्रु. १, अ. २, उ. २ ७. संभोग (सामूहिक आहार) प्रत्याख्यान का फल। -उत्तरा. अ. २९ ८. सहाय-प्रत्याख्यान का फल। -उत्तरा. अ. २९ ९. शिष्य को एकलविहारसमाचारी की शिक्षा देने से आचार्य का शिष्य के ऋण से मुक्त ___ होना -दशा. द. ४ १०. गणत्याग करना आभ्यन्तर तप कहा है। -उववाई. सू. ३०/ भगवती. श. २५, उ. ७ ११. वस्त्र सम्बन्धी प्रतिज्ञायुक्त एकलविहार। -आ. श्रु. १, अ. ८, उ. ४-५-६-७
मोय-प्रतिमा तथा दत्ति-परिमाण तप एवं अनेक अभिग्रहों में भी समूह का या सामूहिक आहार का त्याग किया जाता है। . सपरिस्थितिक एकलविहारचर्या सम्बन्धी विधान करने वाले आगमस्थल
१. आत्मसुरक्षा के लिए एकलविहार। -ठाणं. अ. ३ २. शिष्यों द्वारा उत्पन्न असमाधि से गर्गाचार्य का एकलविहार। -उत्तरा. अ. २६ ३. योग्य सहायक भिक्षु के अभाव में एकलविहार का निर्देश। -उत्तरा. अ. ३२ ४. पूरी चूलिका का नाम ही 'विविक्तचर्या' है एवं उसमें एकलविहार के निर्देश के साथ
अनेक शिक्षाप्रद वचन कहे हैं। -दशवै. चू. २ । ५. शुद्ध गवेषणा करने वाले भिक्षु के एकलविहार की प्रशंसा। -आचा. श्रु. १, अ. ६, उ.२ ६. आधाकर्म दोष से बचने के लिए एकलविहार की प्रेरणा एवं उससे मोक्षप्राप्ति का प्ररूपण।
- सुय. श्रु. १, अ. १० ७. एकलविहारी के निवासयोग्य उपाश्रय का विधान। -व्यव. उ.६ ८. एकलविहारी की वृद्धावस्था का आपवादिक जीवन। -व्यव. उ.८
९. ठाणं अ. ५ में गणत्याग के प्रशस्त कारण कहे हैं एवं बृहत्कल्प उ. ४ में संयम गुण की हानि हो ऐसे गण में जाने का निषेध है। अतः ऐसी परिस्थिति वाले भिक्षु का एकल-विहार। १०. अरिहंत सिद्ध की साक्षी से एकलविहारी भिक्षु को आलोचना एवं प्रायश्चित्त ग्रहण करने
की विधि। -व्यव. उ. १, सू. ३३