Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छट्ठा उद्देशक]
[२५७ यह कल्पस्थिति दो प्रकार की होती है
१. निरतिचार-इत्वरसामायिक वाले शैक्षकों को अथवा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों को पंच महाव्रतों की आरोपणा कराना निरतिचार छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति है।
२. सातिचार-पंच महाव्रत स्वीकार करने के बाद जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी जानबूझकर किसी एक महाव्रत को यावत् पांचों महाव्रतों को भंग करे तो उसकी पूर्व दीक्षापर्याय का छेदन कर पुनः महाव्रतारोपण कराना सातिचार-छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति है।
३. निर्विशमान-कल्पस्थिति-परिहारविशुद्धि संयम में तप की साधना करने वाले साधुओं की समाचारी को निर्विशमान-कल्पस्थिति कहते हैं।
४. निर्विष्टकायिक-कल्पस्थिति-जो साधु संयम की विशुद्धि रूप तप-साधना कर चुके हैं, उनकी समाचारी को निर्विष्टकायिक-कल्पस्थिति कहते हैं।
५. जिनकल्पस्थिति-गच्छ से निकलकर एकाकी विचरने वाले पाणिपात्र-भोजी गीतार्थ साधुओं की समाचारी को जिनकल्पस्थिति कहते हैं।
६. स्थविरकल्पस्थिति-गच्छ के भीतर आचार्यादि की आज्ञा में रहने वाले साधुओं की समाचारी को स्थविरकल्पस्थिति कहते हैं। इस प्रकार तीर्थंकरों ने साधुओं की कल्पस्थिति छह प्रकार की कही है।
छटे उद्देशक का सारांश साधु-साध्वी को छह प्रकार के अकल्पनीय वचन नहीं बोलना चाहिये। किसी भी साधु पर असत्य आरोप नहीं लगाना। क्योंकि प्रमाणाभाव में स्वयं को प्रायश्चित्त का पात्र होना पड़ता है। परिस्थितिवश साधु-साध्वी एक दूसरे के पैर में से कंटक आदि निकाल सकते हैं
और आंख में पड़ी रज आदि भी निकाल सकते हैं। ७-१८ सूत्रोक्त विशेष परिस्थितियों में साधु-साध्वी को सहारा दे सकता है एवं परिचर्या
कर सकता है। साधु-साध्वी संयमनाशक छह दोषों को जानकर उनका परित्याग करे। संयमपालन करने वालों की भिन्न-भिन्न साधना की अपेक्षा से छह प्रकार की
आचारमर्यादा होती है। उपसंहार
इस उद्देशक मेंसूत्र १ अकल्प्य वचन बोलने के निषेध का,
आक्षेप वचन प्रमाणित नहीं करने के प्रायश्चित्त का,
सूत्र १
२०
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