Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्यवहारसूत्र
पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे
मायासहित आलोचना करने पर आसेवित के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित करके योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए।
यदि वह परिहारतप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए।
१. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, २. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, ३. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, ४. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो। १. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, २. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो, ३. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, ४. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो।
इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए।
जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित होकर वहन करते हुए पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए।
. विवेचन-भिक्षु या भिक्षुणी अतिचाररहित संयम का पालन करके तो शुद्ध आराधना करते ही हैं किन्तु साधना के लंबे काल में कभी शारीरिक या अन्य किसी प्रकार की परिस्थितियों से विवश होकर यदि उन्हें अतिचारादि का सेवन करना पड़े तो भी वे आलोचना एवं प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि करके संयम की आराधना कर सकते हैं।
इन सूत्रों में प्रतिसेवना, आलोचना, प्रायश्चित्तस्थान, प्रस्थापना, आरोपणा आदि का कथन किया गया है।
निशीथ उद्देशक २० में ऐसे ही अठारह सूत्र हैं। वहां इन सूत्रों से संबंधित उक्त सभी विषयों का विस्तृत विवेचन कर दिया गया है।
सूत्रोक्त परिहारस्थान के भाष्यकार ने दो अर्थ किये हैं१. परित्याग करने योग्य अर्थात् दोषस्थान और २. धारण करने योग्य अर्थात् प्रायश्चित्ततप।
प्रस्तुत अठारह सूत्रों में दोषस्थान' अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है और निशीथ के प्रत्येक उद्देशक के उपसंहारसूत्र में प्रायश्चित्ततप' अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है।