Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१४]
[दशाश्रुतस्कन्ध तो वह शय्यादाता के लिये भार रूप माना जाता है। इत्यादि कारण से सभी तीर्थंकरों के शासन में साधुओं के लिये यह आवश्यक नियम है कि वह शय्यादाता के घर से आहारादि ग्रहण न करे, क्योंकि शय्यादाता अत्यधिक श्रद्धा-भक्ति वाला हो तो अनेक दोषों की संभावना हो सकती है। यदि किसी क्षेत्र में या किसी काल में ऐसे दोषों की संभावना न हो तो भी नियम सर्व-काल सर्व-क्षेत्र की बहुलता के विचार से होता है। अतः भिक्षु भगवदाज्ञा को शिरोधार्य कर और शबल दोष समझकर कभी भी शय्यादाता से आहारादि ग्रहण न करे।
१२-१३-१४. जानकर हिंसा, मृषा और अदत्त का सेवन-भिक्षु पंच महाव्रतधारी होता है। उसके जीवन भर तीन करण, तीन योग से हिंसा, असत्य और अदत्त का त्याग होता है। यदि अनजाने इनका सेवन हो जाये तो निशीथसूत्र उद्देशक २ में उसका लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा है। किंतु संकल्प करके कोई हिंसा आदि करता है तो उसके ये कृत्य शबल दोष कहे जाते हैं और इन कृत्यों से मूल गुणों की विराधना होती है और उसका संयम भी शिथिल हो जाता है। अतः भिक्षु कभी हिंसा आदि का संकल्प न करे और असावधानी से भी ये कृत्य न हों, ऐसी सतत सावधानी रखे।
१५-१६-१७. जानबूझ कर पृथ्वी, पानी, वनस्पतिकाय की विराधना करना-छहों काय के जीवों की विराधना न हो, यह विवेक भिक्षु प्रत्येक कार्य करते समय प्रतिक्षण रखे। प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु को विवेक रखने की सूचना दी गई है। आचारांग आदि में जो विषय आठ सूत्रों में कहा गया है, वही विषय यहाँ तीन सूत्रों में कहा गया है
यथा-१. सचित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर,
२. नमीयुक्त भूमि पर, ३. सचित रज से युक्त भूमि पर, ४. सचित मिट्टी बिखरी हुई भूमि पर,
५. सचित्त भूमि पर, . ६. सचित्त शिला पर,
७. सचित्त पत्थर आदि पर,
८. दीमकयुक्त काष्ठ पर तथा अन्य किसी भी त्रस स्थावर जीव से युक्त स्थान पर बैठना, सोना, खड़े रहना भिक्षु को नहीं कल्पता है। निशीथसूत्र उद्देशक १३ में इन कृत्यों का लघु चौमासी प्रायश्चित्त विधान इन आठ सूत्रों में है। यहाँ इस सूत्र में संकल्पपूर्वक किये गये ये सभी कार्य शबल दोष कहे गये हैं। अतः भिक्षु इन शबल दोषों का कदापि सेवन न करे, किन्तु प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करे। दशवै. अ. ४ में कहा भी है
जयं चरे जयं चिढे, जयमासे जयं सए।
जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ॥८॥ भिक्षु चलना, खड़े रहना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि सभी प्रवृत्तियाँ यतनापूर्वक करे, जिससे उसके पापकर्मों का बंध न हो।