Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ बृहत्कल्पसूत्र
तीसरे, चौथे और पांचवें सूत्र में ' अभिन्न' पद का अखण्ड अर्थ एवं 'पक्व' पद का शस्त्रपरिणत अर्थ अभीष्ट है ।
भाष्य में 'तालप्रलम्ब' पद से वृक्ष के दस विभागों को ग्रहण किया गया है, यथामूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य । पुप्फे फले य बीए, पलंब सुत्तम्मि दस भेया ॥
- बृहत्कल्प उद्दे. १, भाष्य गा. ८५४ सूत्रों का संयुक्त अर्थ यह है कि साधु और साध्वी पक्व या अपक्व और शस्त्र - अपरिणत १. मूल, २. कन्द, ३. स्कन्ध, ४. त्वक्, ५. शाल, ६. प्रवाल, ७. पत्र, ८. पुष्प, ९. फल और १०. बीज को ग्रहण नहीं कर सकते हैं । किन्तु ये ही यदि शस्त्र - परिणत हो जाएँ तो साधु और साध्वी ग्रहण कर सकते हैं।
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इन सूत्रों में प्रयुक्त 'आम, पक्व, भिन्न एवं अभिन्न' इन चारों पदों की भाष्य में द्रव्य एवं भाव से चौभंगियाँ करके भी यही बताया गया है कि भाव से पक्व या भाव से भिन्न अर्थात् शस्त्रपरिणत तालप्रलम्ब हो तो भिक्षु को ग्रहण करना कल्पता है।
प्रथम सूत्र में कच्चे तालप्रलम्ब शस्त्रपरिणत न हों तो अग्राह्य कहे हैं एवं दूसरे सूत्र में उन्हीं को शस्त्रपरिणत ( भिन्न) होने पर ग्राह्य कहा है।
जिस प्रकार दूसरे सूत्र में द्रव्य और भाव के भिन्न होने पर कच्चे तालप्रलम्ब ग्राह्य कहे हैं उसी प्रकार तीसरे सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब भिन्न या अभिन्न हों तो भिक्षु के लिये ग्राह्य कहे
चौथे सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब भी अभिन्न हों तो साध्वी को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। पांचवें सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब के बड़े-बड़े लम्बे टुकड़े लेने का साध्वी के लिये निषेध करके छोटे-छोटे टुकड़े हों तो ग्राह्य कहे हैं।
अचित्त होते हुए भी अखण्ड या लम्बे खण्ड साध्वी को लेने के निषेध का कारण इस
प्रकार है
अभिन्न- अखण्ड केला आदि फल का तथा शकरकंद, मूला आदि कन्द-मूल का लम्बा आकार देखकर किसी निर्ग्रन्थी के मन में विकार भाव जागृत हो सकता है और वह उससे अनंगक्रीड़ा भी कर सकती है, जिससे उसके संयम और स्वास्थ्य की हानि होना सुनिश्चित है। अतः निर्ग्रन्थी को अभिन्न फल या कन्द आदि लेने का निषेध किया गया है। साथ ही अविधिपूर्वक भिन्न कदली आदि फलों के, मूला आदि कन्दों के, ऐसे लम्बे खण्ड जिन्हें देखकर कामवासना का जागृत होना सम्भव हो, उन्हें लेने का भी निषेध किया गया है। किन्तु विधिपूर्वक भिन्न अर्थात् इतने छोटे-छोटे खण्ड किए हुए हों कि जिन्हें देखकर पूर्वोक्त विकारीभाव जागृत न हो तो ऐसा फल या कन्द आदि साध्वी ग्रहण कर सकती है। जो फल पककर वृक्ष से स्वयं नीचे गिर पड़ता है अथवा पक जाने पर वृक्ष से तोड़ लिया जाता है, उसे द्रव्यपक्व कहते हैं। वह द्रव्यपक्व फल भी सचित्त- सजीव बीज, गुठली आदि से संयुक्त