Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक]
[१३३ १. उच्चार-प्रस्रवणभूमि में और स्वाध्यायभूमि में आते-जाते समय तथा भिक्षा के समय गलियों में या ग्राम के द्वार पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का बार-बार मिलन होने से एक-दूसरे के साथ संसर्ग बढ़ता है और उससे रागभाव की वृद्धि होती है। अथवा उन्हें एक ही दिशा में एक ही मार्ग से जातेआते देखकर जनसाधारण को अनेक आशंकाएं उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
'संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति' इस सूक्ति के अनुसार संयम की हानि सुनिश्चित है। एक वगड़ा में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के उपाश्रयों के द्वार एक-दूसरे के आमने-सामने हों। एक उपाश्रय के द्वार के पार्श्वभाग में दूसरे उपाश्रय का द्वार हो। एक उपाश्रय के पृष्ठभाग में दूसरे उपाश्रय का द्वार हो। एक उपाश्रय का द्वार ऊपर हो और दूसरे उपाश्रय का द्वार नीचे हो।
तथा निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय समपंक्ति में हों तो भी जन-साधारण में अनेक आशंकाएं उत्पन्न होती हैं तथा उनके संयम की हानि होने की सम्भावना रहती है।
सूत्रांक ११ में अनेक वगड़ा अनेक द्वार और अनेक आने-जाने के मार्ग वाले ग्राम आदि के विभिन्न उपाश्रयों में निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों के समकाल में रहने का विधान है। क्योंकि अनेक आनेजाने के मार्ग वाले ग्राम आदि में निर्ग्रन्थों तथा निर्ग्रन्थियों का बार-बार मिलन न होने से न सम्पर्क बढ़ेगा
और न रागभाव बढ़ेगा, न जन-साधारण को किसी प्रकार की आशंका उत्पन्न होगी। अतः ऐसे ग्रामादि में यथावसर साधु-साध्वी का समकाल में रहना दोषरहित समझना चाहिये। आपणगृह आदि में साधु-साध्वियों के रहने का विधि-निषेध
१२. नो कप्पइ निग्गंथीणं १. आवणगिहंसि वा, २. रत्थामुहंसि वा, ३. सिंघाडगंसि वा, ४. तियंसि वा, ५. चउक्कंसि वा, ६. चच्चरंसि वा, ७. अन्तरावणंसि वा वत्थए।
१३. कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अन्तरावणंसि वा वत्थए।
१२. निर्ग्रन्थियों को १. आपणगृह, २. रथ्यामुख, ३. शृंगाटक, ४. त्रिक, ५. चतुष्क, ६. चत्वर अथवा ७. अन्तरापण में रहना नहीं कल्पता है।
१३. निर्ग्रन्थों को आपणगृह यावत् अन्तरापण में रहना कल्पता है।
विवेचन-१. हाट-बाजार को 'आपण' कहते हैं, उसके बीच में विद्यमान गृह या उपाश्रय 'आपणगृह' कहा जाता है।
२. रथ्या का अर्थ गली या मोहल्ला है, जिस उपाश्रय या घर का मुख (द्वार) गली या मोहल्ले की ओर हो, वह 'रथ्यामुख' कहलाता है अथवा जिस घर के आगे से गली प्रारम्भ होती हो, उसे भी 'रथ्यामुख' कहते हैं।
३. सिंघाड़े के समान त्रिकोण स्थान को 'शृंगाटक' कहते हैं। ४. तीन गली या तीन रास्तों के मिलने के स्थान को 'त्रिक' कहते हैं।