Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[बृहत्कल्पसूत्र आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती है। उनके आने के बाद पहले ठहरे हुए साधु विहार कर जाएँ तो वे अपने कल्पानुसार वहां रुक सकते हैं। यथालन्दकाल का यहां 'यथायोग्य कल्पानुसार समय' ऐसा अर्थ होता है।
यदि पहले ठहरे हुए साधुओं ने विहार कर मालिक को मकान सुपुर्द कर दिया हो, उसके बाद कोई साधु आवे तो उन्हें पुनः आज्ञा लेना आवश्यक होता है।
यदि मकान मालिक ने साधु-संख्या या मकान की सीमा बताकर ही आज्ञा दी हो तो उससे ज्यादा साधु आवें या मकान की सीमा से अधिक जगह का उपयोग करना हो तो पुनः आज्ञा लेना आवश्यक होता है। यदि पूर्वस्थित साधुओं की आज्ञा में ही ठहरा जाए तो उपाश्रय में रहे अतिरिक्त शय्या-संस्तारक आदि भी उसी पूर्वस्थितों की आज्ञा से ग्रहण किये जा सकते हैं और यथायोग्य समय तक उनका उपयोग कर सकते हैं।
सूत्र में 'अचित्त' शब्द का प्रयोग इसलिये किया गया है कि उपाश्रय में तो कई सचित्त पदार्थ भी हो सकते हैं। भिक्षु को सचित्त अथवा जीवयुक्त उपकरण लेना नहीं कल्पता है, अतः अचित्त और उपयोग में आने योग्य उपकरण हों तो ही भिक्षुओं की पूर्वगृहीत आज्ञा से ग्रहण किये जा सकते हैं । यदि यह ज्ञात हो जाए कि इन उपकरणों की पूर्व भिक्षुओं ने स्वामी से आज्ञा नहीं ली है तो आगन्तुक भिक्षु को उनकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है। सूत्र का आशय यह है कि पूर्व भिक्षुओं ने जिस मकान की एवं जिन उपकरणों की आज्ञा ले रखी है उनकी पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती है। स्वामी-रहित घर की पूर्वाज्ञा एवं पुनः आज्ञा का विधान
३०. से वत्थूसु-अव्वावडेसु, अव्वोगडेसु, अपरपरिग्गहिएसु, अमरपरिग्गहिएसुसच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे।
३१. वे वत्थूसु-वावडेसु, वोगडेसु, परपरिग्गहिएसु, भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि उग्गहे अणुनवेयव्वे सिया अहालन्दमवि उग्गहे।
३०. जो घर काम में न आ रहा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित न हो, जिस पर किसी अन्य का प्रभुत्व न हो अथवा किसी देव द्वारा अधिकृत हो तो उसमें भी उसी पूर्वस्थित साधुओं की आज्ञा से जितने काल रहना हो, ठहरा जा सकता है।
___३१. वही घर आगन्तुक भिक्षुओं के ठहरने के बाद में काम में आने लगा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित हो गया हो या अन्य से परिगृहीत हो गया हो तो भिक्षु भाव अर्थात् संयममर्यादा के लिये जितने समय रहना हो उसकी दूसरी बार आज्ञा ले लेनी चाहिये।
विवेचन-१. अव्यापृत-जो घर जीर्ण-शीर्ण होने से या गिर जाने से किसी के द्वारा उपयोग में नहीं आ रहा है, उसे 'अव्यापृत' कहते हैं।
२. अव्याकृत-जो घर अनेक स्वामियों का होने से किसी के द्वारा अपने अधीन नहीं किया गया है, उसे 'अव्याकृत' कहते हैं।