Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२०८]
[ बृहत्कल्पसूत्र
१० कल्प (साधु के आचार) इस प्रकार हैं
१. अचेलकल्प - अमर्यादित वस्त्र न रखना, किन्तु मर्यादित वस्त्र रखना, रंगीन वस्त्र न रखना, किन्तु स्वाभाविक रंग का अर्थात् सफेद रंग का वस्त्र रखना और मूल्यवान् चमकीले वस्त्र न रखना किन्तु अल्पमूल्य के सामान्य वस्त्र रखना।
२. औद्देशिककल्प — अन्य किसी भी साधर्मिक या सांभोगिक साधुओं के उद्देश्य से बनाया गया आहार आदि औद्देशिक दोष वाला होता है। ऐसे आहार आदि को ग्रहण नहीं करना । ३. शय्यातरपिंडकल्प - शय्यादाता का आहारादि ग्रहण नहीं करना ।
४. राजपिंडकल्प-मूर्धाभिषिक्त राजाओं का आहारादि नहीं लेना ।
५. कृतिकर्मकल्प - रत्नाधिक को वंदन आदि विनय-व्यवहार करना ।
६. व्रतकल्प- पांच महाव्रतों का पालन करना अथवा चार याम का पालन करना। चार याम में चौथे और पांचवें महाव्रत का सम्मिलित नाम 'बहिद्धादाण' है ।
७. ज्येष्ठकल्प - जिसकी बड़ी दीक्षा पहले हुई हो वह ज्येष्ठ कहा जाता है और साध्वियों के लिये सभी साधु ज्येष्ठ होते हैं। अतः उन्हें ज्येष्ठ मानकर व्यवहार करना ।
८. प्रतिक्रमणकल्प – नित्य नियमित रूप से दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण करना ।
९. मासकल्प- हेमंत-ग्रीष्म ऋतु में विचरण करते हुए किसी भी ग्रामादि में एक मास से अधिक नहीं ठहरना तथा एक मास ठहरने के बाद वहाँ दो मास तक पुनः आकर नहीं ठहरना । साध्वी के लिए एक मास के स्थान पर दो मास का कल्प समझना ।
१०. चातुर्मासकल्प - वर्षाऋतु में चार मास तक एक ही ग्रामादि में स्थित रहना किन्तु विहार नहीं करना । चातुर्मास के बाद उस ग्राम में नहीं रहना एवं आठ मास (बाद में चातुर्मास काल आ जाने से बारह मास) तक पुनः वहाँ आकर नहीं रहना ।
ये दस कल्प प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकर के साधु-साध्वियों को पालन करना आवश्यक होता है। मध्यम तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों को चार कल्प का पालन करना आवश्यक होता है, शेष छह कल्पों का पालन करना आवश्यक नहीं होता ।
चार आवश्यक कल्प - १. शय्यातरपिंडकल्प, २. कृतिकर्मकल्प, ३ . व्रतकल्प, ४. ज्येष्ठकल्प ।
छह ऐच्छिक कल्प
१. अचेल - अल्प मूल्य या बहुमूल्य, रंगीन या स्वाभाविक, किसी भी प्रकार के वस्त्र अल्प या अधिक परिमाण में इच्छानुसार या मिलें जैसे ही रखना ।
२. औद्देशिक- स्वयं के निमित्त बना हुआ आहारादि नहीं लेना किन्तु अन्य किसी भी साधर्मिक साधु के लिये बने आहारादि इच्छानुसार लेना ।
३. राजपिंड - मूर्धाभिषिक्त राजाओं का आहार ग्रहण करने में इच्छानुसार करना ।
४. प्रतिक्रमण - नियमित प्रतिक्रमण इच्छा हो तो करना किन्तु पक्खी चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण अवश्य करना ।