Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[बृहत्कल्पसूत्र तात्पर्य यह है कि देव या देवी के विकुर्वित स्त्री रूप से स्पर्श का अनुमोदन करने से साधु को प्रायश्चित्त आता है और देव या देवी के विकुर्वित पुरुष रूप के स्पर्श का अनुमोदन करने से साध्वी को प्रायश्चित्त आता है। कलहकृत आगंतुक भिक्षु के प्रति कर्तव्य
५. भिक्खु य अहिगरणं कद्दु तं अहिगरणं अविओसवेत्ता इच्छेन्जा अनं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरत्तिए कप्पइ तस्स पंच राइंदियं छेयं कटु परिणिव्वाविय-परिणिव्वाविय दोच्चं पि तमेवं गणं पडिनिज्जाएयव्वे सिया, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया।
५. भिक्षु कलह करके उसे उपशान्त किये बिना अन्यगण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे पांच दिन-रात की दीक्षा का छेद देकर और सर्वथा शान्त-प्रशान्त करके पुनः उसी गण में लौटा देना चाहिये अथवा जिस गण से वह आया है, उस गण को जिस प्रकार से प्रतीति हो उसी तरह करना चाहिए।
_ विवेचन-इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि यदि कोई भिक्षु किसी कारण से क्रोधित होकर अन्यगण में चला जावे तो उस गण के स्थविरों को चाहिए कि उसे उपदेश देकर शान्त करे और पांच दिन की दीक्षा का छेदन कर पूर्व के गण में वापिस भेज दें, जिससे उस गण के निर्ग्रन्थ भिक्षुओं को यह विश्वास हो जाए कि इस निर्ग्रन्थ भिक्षु का क्रोध उपशान्त हो गया है।
यदि उपाध्याय किसी प्रकार से क्रोधित होकर अन्यगण में चले जाएँ तो उस गण के स्थविर उन्हें भी कोमल वचनों से प्रशान्त करें और उनकी दश अहोरात्र प्रमाण दीक्षा का छेदन कर उन्हें पूर्व के गण में लौटा दें।
यदि आचार्यादि भी क्रोधित होकर अन्यगण में चले जाएँ तो उन्हें भी उस गण के स्थविर कोमल वचनों से शान्त करें और उनकी पन्द्रह अहोरात्र प्रमाण दीक्षा का छेदन कर उन्हें पूर्व के गण में लौटा दें।
कषाय का व्यापक प्रभाव बताते हुए भाष्यकार ने कहा कि देशोन कोटि (करोड़) पूर्वकाल तक तपश्चरण करके जिस चारित्र का उपार्जन किया है वह एक मुहूर्त प्रमाण काल तक की गई कषाय से नष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ भिक्ष को कषाय नहीं करना चाहिए। यदि कदाचित कषाय उत्पन्न हो जाए तो उसे तत्काल शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
अपने गण को छोड़कर अन्य गण में आये हुए भिक्षु आदि समझाने पर भी पुनः अपने गण में जाना न चाहें तो उस गण के स्थविर सामान्य भिक्षु की दश अहोरात्र, उपाध्याय की पन्द्रह अहोरात्र
और आचार्य की बीस अहोरात्र दीक्षा का छेदन कर अपने गण में रख सकते हैं, किन्तु रखने के पूर्व सम्भव हो तो उस गण से उसकी जानकारी एवं स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए। रात्रिभोजन के अतिचार का विवेक एवं प्रायश्चित्तविधान
६.भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणथमिय-संकप्पे संथडिए निव्वितिगिच्छे असणं वा जाव साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं आहरेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा