Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौथा उद्देशक]
[२०५ सेय आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसिंअणुप्पदेज्जा, एगन्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया।
तं अप्पणा भुंजमाणे, अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं।
निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रथम पौरुषी में ग्रहण किए हुए अशन यावत् स्वादिम को अन्तिम पौरुषी तक अपने पास रखना नहीं कल्पता है।
क़दाचित् वह आहार रह जाय तो उसे स्वयं न खाए और न अन्य को दे किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त स्थंडिलभूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर उस आहार को परठ देना चाहिए।
यदि उस आहार को स्वयं खाए या अन्य को दे तो वह उद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
विवेचन-पौरुषी का अर्थ है प्रहर। दिन के प्रथम प्रहर में लाया गया आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना योग्य नहीं है। इसके पूर्व ही साधु और साध्वियों को उसे काम में ले लेना चाहिए।
यदि भूल आदि से कभी रह जाये तो कालातिक्रम हो जाने पर साधु-साध्वी न स्वयं उसे खाएँ, न दूसरों को खिलाएँ, किन्तु किसी एकान्त, प्रासुक भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके यथाविधि परठ दें।
यदि वे ऐसा नहीं करते हैं और उसे स्वयं खाते हैं या दूसरे साधु-साध्वियों को देते हैं तो वह लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
__ भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में इतना और स्पष्ट किया है कि जिनकल्पी साधु को तो जिस प्रहर में वह गोचरी लावे उसी प्रहर में उसे खा लेना चाहिए। अन्यथा वह संग्रहादि दोष का भागी होता है। किन्तु जो गच्छवासी (स्थविरकल्पी) साधु हैं, वे प्रथम प्रहर में लायी गई गोचरी को तीसरे प्रहर तक सेवन कर सकते हैं। उसके पश्चात् सेवन करने पर वे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
सूत्र में चारों प्रकार के आहार का कथन है, इसलिए भिक्षु आहार के सिवाय पानी, फल, मेवे एवं मुखवास भी चौथे प्रहर में नहीं रख सकते हैं। यदि चारों प्रकार के आहार दूसरे प्रहर में लाये गये हों तो उन्हें चतुर्थ प्रहर तक रख सकते हैं और उपयोग में ले सकते हैं। औषध-भेषज भी तीन प्रहर से अधिक नहीं रख सकते हैं। ऐसा भी इस सूत्र के विधान से समझना चाहिए। लेप्य पदार्थों के लिए पांचवें उद्देशक में निषेध एवं अपवाद बताया गया है। दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध
१७. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा जाव साइमं वा, परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावेत्तए।।
से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पदेज्जा, एगन्ते बहुफासुए थंडिले पंडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया।