Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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एवं अर्थ की वाचना देनी चाहिए। क्योंकि ये प्रतिपादित तत्त्व को सरलता हैं।
[ बृहत्कल्पसूत्र
या सुगमता से ग्रहण करते
ग्लान को मैथुनभाव का प्रायश्चित्त
१४. निग्गंथिं च णं गिलायमाणिं पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।
१५. निग्गंथं च गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।
१४. ग्लान निर्ग्रन्थी के पिता, भ्राता या पुत्र गिरती हुई निर्ग्रन्थी को हाथ का सहारा दें, गिरी हुई को उठावें, स्वतः उठने-बैठने में असमर्थ को उठावें बिठावें, उस समय वह निर्ग्रन्थी मैथुनसेवन के परिणामों से पुरुषस्पर्श का अनुमोदन करे तो वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है। १५. ग्लान निर्ग्रन्थ की माता, बहिन या बेटी गिरते हुए निर्ग्रन्थ को हाथ का सहारा दें, गिरे हुए को उठाएँ, स्वतः बैठने-उठने में असमर्थ को उठाएँ, बिठाएँ, उस समय वह निर्ग्रन्थ मैथुनसेवन के परिणामों के स्त्रीस्पर्श का अनुमोदन करे तो वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन - साध्वी के लिए पुरुष के शरीर का स्पर्श और साधु के लिए स्त्री के शरीर का स्पर्श ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सर्वथा वर्जित है ।
बीमारी आदि के समय भी साध्वी की साध्वी और साधु की साधु ही परिचर्या करें, यही जिन-आज्ञा है । किन्तु कदाचित् ऐसा अवसर आ जाय कि कोई साध्वी शरीर-बल के क्षीण होने से कहीं पर आते या जाते हुए गिर जाय और देखकर उस साध्वी का पिता, भाई या पुत्रादि कोई भी पुरुष उसे उठाए, बिठाए या अन्य शरीर-परिचर्या करे तब उसके शरीर के स्पर्श से यदि साध्वी के मन में कामवासना जागृत हो जाय तो उसके लिए चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहा गया है।
इसी प्रकार बीमारी आदि से क्षीणबल कोई साधु कहीं गिर जाय और उसकी माता, बहिन या पुत्री आदि कोई भी स्त्री उसे उठाए, तब उसके स्पर्श से यदि साधु के मन में काम-वासना जग जाय तो वह साधु गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है।
यहां प्रायश्चित्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह रुग्ण साधु या साध्वी स्पर्शपरिचारणा का अनुभव करे तो वह उक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध
१६. नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा असणं वा जाव साइमं वा, पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता, पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए ।